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________________ कुसील लिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीवियबूहइत्ता | असंजए संजय लप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरंपि ॥ उद्देसिअं की अगडं निआगं, न मुच्चइ किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, तओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥ - उपदेश रत्नाकर २/७ इस लोक में कुशील साधु, साधु के लक्षणरूप रजोहरणादि से जीवन पूर्ण करता है । असंयमी होते हुए भी अपने को संयमी दर्शाने वाला दीर्घकाल तक पतन को प्राप्त करता है, निमंत्रण देता है । आधाकर्मि, औद्देशिक, क्रीत आदि किसी भी प्रकार का आहार नहीं छोड़ता। वह अग्नि के समान सर्वभक्षी है । वह संयम से च्युत होकर पाप करके दारुण दुःख को प्राप्त करता है। परिग्रहारम्भमग्नास्तारयेयुः कथं परान् । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरी कर्त्तुमीश्वरः ।। उपदेशरत्नाकरसप्तमतरङ्ग द्वितीयेऽशे. - परिग्रह और आरंभ में रक्त दूसरों को कैसे तारेंगे ? क्योंकि स्वयं दरिद्री होने से दूसरों को ऐश्वर्यशाली कैसे बनायगा ? दुहं घरिभज्जा करसण किज्जइ कवणु सीस गुरुकवण भणिज्जइ । 150
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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