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वालों का उद्देश्य मुख्यतः मनोरंजन का होता है । वे सभी अहमिन्द्र के समान अपने आप सर्व सत्ता संपन्न हो गये । उन्हें दूसरे दीक्षा ज्येष्ठ की परवाह ही क्या है ? ऐसे मनमौजी स्वच्छन्द, व्रत नियम और धर्माधर्म की परवाह भी क्यों करने लगे ? उनकी इच्छा ही उनके लिए धर्म होती है । इच्छा के आगे सभी धर्म हार जाते हैं। नियकज्जे मिउवयणा कयकिच्चे फरुसवयणभासिल्ला | अइमूढगूढहियया चुण्णकणगुव्व रंगकरा ||१४८||
अप्पम्मि चरणधम्मं ठावंता संपयंमि समयंमि विसयकसाय धणंजय-जालाजलिया वि ते जाण ||१४९||
संजलम्मिक-साए चरणं कहियं जिणेहिं नन्नत्थ । पायं आभिण्णगंठिप्पएसिणो ते मुणेयवा ||१५०|| ___ जब उनका खुद का कोई काम होता है, तो बड़े मीठे बोलते हैं और काम निकल जाने पर कठोर वचनों का व्यवहार करते हैं। वे अत्यंत मूढ़ एवं गूढ़ हृदय वाले हैं.। वे अपने वस्त्र, चूने और कतक (कत्थे) की तरह रंगने वाले हैं ।।१४८।।
जो वर्तमान में अपने में ही चारित्र धर्म की स्थापना करने वाले हैं। उन्हें विषय कषाय रूपी अनि ज्वाला में जले हुए समझना चाहिए ।।१४९।।
जिनेश्वर भगवान् ने संज्वलन कषाय के उदय में ही चारित्र धर्म कहा है, किन्तु वे मुनि तो अभिन्न ग्रंथी प्रदेश वाले हैं-ऐसा जानना चाहिए ।।१५०।।
गाथा १४८ से लगता है कि वस्त्र को रंगने की प्रथा उस समय भी चालू थी । किन्तु वह रंग, पीत नहीं, लाल से मिलता जुलता या भगवे रंग के समान होगा। पीत वर्ण तो बाद में 142