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________________ मेरु के समान महान् करके बतलाते हैं ।।१४५।। जब सुखशीलियापन आता है, तो धर्म का अवलम्बन ढीला पड़ जाता है और प्रमाद बढ़ जाता है । प्रमाद बढ़ने पर अपने छोटे से गुण को बड़ा बताकर भक्तजनों में अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने का मिथ्या प्रपञ्च किया जाता है । कोई महान् तपस्वी बनने का ढोंग करता है, तो कोई अपने को अध्यात्म प्रेमी बताने की चेष्टा करता है । किसी भी प्रकार से अपनी मान्यता कायम रखने का प्रयत्न किया जाता है । धम्मकहाओ उवहिज्जइ घरा घरं भमइ परिकहंतो य । कारणपरूवणाहिं अइरित्तं वहइ उवगरणं ||१४६।। लोगों के घरों में जाकर धर्म कथाएं कहते फिरते हैं । कुछ कारण बताकर अतिरिक्त (विशेष) उपकरण प्राप्त करने के लिए फिरते हैं ।।१४६।। मर्यादा से अधिक उपकरण रखने से उपासकों में शंका उत्पन्न होती है । उस शंका को दूर करने के लिए कुछ कारण खड़े करने पड़ते हैं । इसलिए वे वाचालता से कुछ बनावटी कारण बताकर अपनी शिथिलता का बचाव करते हैं। एगागिच्छब्भमणं सव्वत्थ वि अगणिऊण पज्जाओ | सवे अहमिंदधम्मा नियमाणं परिभवोण्णस्स ||१४७|| सर्वत्र एकाकी भ्रमण करते हैं । दीक्षा पर्याय की गिनती की अपेक्षा नहीं रखकर सभी अहमिन्द्र-धर्मा हो गये । वे अपने नियमों का पराभव करते हैं ।।१४७।। आचार्यश्री कहते हैं कि वे कुशीलिए जहाँ चाहे, बिना किसी प्रतिबंध के अकेले ही घूमते रहते हैं । ऐसे अमर्याद भ्रमण करने 141
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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