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________________ संभोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान किया है । इन सब बातों की उपेक्षा करके बड़े-बड़े दुराचारियों को भी उदरस्थ कर लेना, महान् धर्म-द्रोह है । जिन्हें लौकिकता प्यारी है, जो लोकेषणा के इच्छुक हैं, वे धर्म व्यवस्था की उपेक्षा करके जिनाज्ञा के विराधक बनते हैं । वे जान बूझकर अनजान बनते हैं । _ शिथिलाचार पहले भी था'-ऐसा कहकर शिथिलाचार को मान्य करने, उसे शुद्धाचार-सा आदर देने की भोंडी दलील देने वालों की दृष्टि में अब किसी हत्यारे या चोर को दंड नहीं मिलना चाहिए और डकैती, व्यभिचार, घूसखोरी मांस भक्षणादि को भी शुद्धाचार मान लेना चाहिए, क्योंकि ये सभी नये नहीं हैं । ऐसे पाप तो पहले भी होते थे । उन महानुभावों की दृष्टि, शिथिलाचार का बचाव करने के लिए पापों की ओर तो चली गयी, किन्तु उनकी पक्षपात से बंध आँखें यह नहीं देख पायी कि जिनागमों ने शिथिलाचार का विरोध किया है और शिथिलाचारियों से संभोग करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बतलाया है । वे मैले पक्ष का बचाव मात्र ढूंढ़ते हैं । उनकी दृष्टि में उज्ज्वल पक्ष आता ही नहीं । मैले में मगन तो पशु होता है, मानव नहीं होता । आचार्यश्री कहते हैं कि जो कुशीलियों को आदर देते हैं, सहायता करते हैं, वे स्वयं वैसे ही दोष के पात्र हैं। मध्यस्थ रहने वाले भी व्रत लोपक हैं आणाभंगं दटुं मज्झत्थाठिंति ठवंति जे तुसिणीआए | 126
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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