________________
प्रश्न के उत्तर में आचार्यश्री कहते हैं कि) पासत्था की संगति संयम का नाश करने वाली है, इसलिए संयम का नाश करने से तो संगति नहीं करना ही उत्तम है ।।११३।। [उप० माला २२२ गाथा]
किसी उत्साह हीन सुखशीलिये ने यह उलझन उपस्थित की कि-आचार्यश्री निर्दोष रीति से चारित्र पालन करने पर जोर देते हैं, किन्तु हमारी स्थिति यह है कि कुशीलियापन स्वीकार नहीं करें, तो हमारा कमजोर शरीर गल गल कर नष्ट हो जायगा, हम मर जायेगे और पासत्थापन ग्रहण करने पर संयमी जीवन नष्ट हो जाता है। फिर हम क्या करें ?
पासत्थापन ग्रहण करके शरीर को बचावें या संयम की रक्षा करें ?' इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यश्री फरमाते हैं किपासत्थापन अथवा पासत्था की संगति से होने वाले संयमी जीवन के मरण से, तो पासत्थापन से दूर रहना ही बेहतर है । संयम खोकर असंयमी जीवन जीने से लाभ ही क्या है ? असंयमी जीवन तो पाप का भार बढ़ाने वाला है, ऐसे लम्बे असंयमी जीवन से तो संयमपूर्ण घडीभर का जीवन लाख दर्जे अच्छा है।
तर्क अनुकूल भी होते हैं और प्रतिकूल भी । पासत्थपक्षी के लिए भी बोलने के लिए बहुत कुछ है । वे कहते हैं कि-- संयम का पालन करने के लिए शरीर की अनिवार्य आवश्यकता है । यदि शरीर ही नहीं रहे, तो संयम का पालन कैसे हो ? इसलिए शरीर रक्षा का प्रयत्न सर्वोच्च स्थान रखता है । यदि प्रतिसेवनादोष लगाकर व्रत भंग करके भी शरीर की रक्षा करनी पड़े, तो करनी चाहिए । यह 'कल्प-निर्दोष प्रतिसेवना' है ।
106