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है । इसका फल बहुत भयंकर होता है । इसकी भयंकरता तब अधिक बढ़ जाती है, जब कि उत्सूत्राचारी, सूत्रोक्त आचार का अतिवाद, अनेकांत अथवा अन्य किसी बहाने से लोप करके मिथ्यात्व को पुष्ट करने के लिए मायामृषा का आचरण करे। भगवान् के अनेकांत जैसे एक सिद्धांत को, अपनी कुबुद्धि से शस्त्र बनाकर, उन्हीं के दूसरे सिद्धांत का खंडन करे, लोप करे, ऐसा कृत्य तो मित्र के वेश में घुसे हुए शत्रु, विशेष सफलता से कर सकते हैं।
शास्त्रकार कहते हैं, उत्सूत्राचरण बड़ा पाप है, किन्तु उत्सूत्र प्ररूपणा-प्रचार तो उससे भी बहुत बड़ा और भयंकरतम पाप है । यह तो सीधी और सरल बात है कि-पाप करना बुरा है, किन्तु पाप को पुण्य बतलाना, अधर्म को धर्म सिद्ध करने में प्रयत्नशील होना, तो महान् पाप है ।।
वैसे व्यक्तियों को आज उसका परिणाम दिखाई नहीं देता और वे अपने अभिनिवेश या कुबुद्धि के वेग में पाप के गहरे गर्त में उतरते ही जाते हैं, किन्तु जब परिणाम भोगने का समय आयगा, तब उनके तर्क यहीं धरे रह जायेंगे और वे दीर्घकालीन अज्ञान के अंधकार में भटकते रहेंगे। जो गिण्हइ वयलोवो अहव न गिण्हइ सरीरवुच्छेए । पासत्थसंगमो वि य वयलोवो तो वरमसंगो ||११३।। ___ यदि (पासत्थापन) ग्रहण करें, तो व्रत का लोप होता है
और नहीं करें, तो शरीर का नाश होता है (फिर हम क्या करें? इस प्रकार चारित्र का पालन करने में असमर्थ किसी साधु के 1. जैसे हम लेट्रीन का उपयोग करते हैं तो आपको करने में कौन-सा अधर्म हो जायगा ?
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