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जहरीला बना डालते हैं।
उक्त पाठ में तीन तत्त्वों (देव, गुरु, धर्म) पर श्रद्धा कर उसे स्वीकार करने की बात कही गयी है। इसमें विशेष नोट करने की बात है कि देव तत्त्व और धर्म तत्त्व के साथ प्रभु ने 'सु' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इसका कारण स्पष्ट है कि 'देवतत्त्व' से अरिहन्त भगवन्तों को लिया गया है, वे अपने आप में ही 'सु' है, क्योंकि चार घाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय होने पर जब वीतरागता प्रकट होती है तब अरिहंत पद की प्राप्ति होती है । वे अठारह दोष रहित एवं सर्वज्ञता के बारह गुण सहित होते हैं । अत एव उनमें एवं उनके द्वारा प्ररूपित वाणी में अंश मात्र दोष की संभावना रहती ही नहीं है । अत एव आगमकार महर्षियों ने उनके लिए 'सु' शब्द का प्रयोग नहीं किया। 'सु' शब्द का प्रयोग किया गया है मात्र 'गुरु पद' के लिए अर्थात् 'सुसाहुणो गुरुणो' । इससे स्पष्ट है, सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु ने अपने समय में गोशालक जैसे कुगुरु को देखा और पंचम आरे में 'बहुतायत' में 'कुगुरुओं' की संभावना को अपने केवलज्ञान में देखकर "सम्यक्त्व के पाठ" में स्पष्ट संकेत कर दिया कि - 'सुसाहुणो गुरुणो' अर्थात् मात्र सुसाधु ही मेरे गुरु होंगे। सुसाधु से आशय, नमस्कार सूत्र के पांचवें पद में साधु के २७ गुण बतलाये गये हैं, उनके धारक ही मेरे गुरु होंगे। इन गुणों से रहित "कुगुरु" मेरे गुरु नहीं होंगे। गुण रहित 'कुगुरु' को गुरु पद में स्वीकार करने का मतलब अपने स्वीकृत सम्यक्त्व से त्याग पत्र देकर मिथ्यात्व में प्रवेश करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना ।
इस संदर्भ में एक और नोट करने योग्य बात उक्त पाठ में बतलायी गयी है। जो 'गुरुणो' शब्द आया है, वह बहुवचन का द्योतक है। अर्थात् ढाई द्वीप रूप लोक में जितने (जघन्य दो हजार करोड़ उत्कृष्ट नव हजार करोड़) सुसाधु हैं वे सभी मेरे गुरु रूप हैं। अत एव अपने कुगुरुओं द्वारा दी गई सीख से यह कहना कि 'गुरु एक, सेवा अनेक' यानी गुरु तो मात्र हमें ही मानें बाकी अन्य सुसाधुओं को गुरु नहीं मानना, उनकी तो सेवा मात्र करना । क्या इस प्रकार श्रावक वर्ग का बरगलाना प्रभु आज्ञा का स्पष्ट अतिक्रमण, उल्लंघन, भंग नहीं है? प्रभु तो उक्त पाठ में स्पष्ट संकेत करते हैं कि लोक के समस्त सुसाधुओं को गुरु पद से