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प्रसंग करने का निषेध किया है ।।१११।। उपदेश मालागाथा २२३ ___ आगमों में बारह प्रकार के संभोग का विधान है । वह पूर्ण रूप से तो समान समाचारी वाले साधु साध्वियों के साथ हो सकता है । हीनाचारी या जैसे तैसे के साथ नहीं । यदि हीनाचारी के साथ सुशील साधु संभोग करे, तो वह दोष का पात्र होता है । जिनेश्वर भगवंतों ने कुशीलियों का संसर्ग नहीं करने का जो नियम बनाया है, वह स्वयं सुशील साधु की आत्म-रक्षा, उत्तम परंपरा को निर्दोष बनाये रखने और भव्य जीवों को संयम मार्ग की प्रेरणा लेने के लिए बनाया है । शुद्धाचारी साधुओं का नमूना देखकर शिथिलाचारी भी प्रेरणा ले सकता है और अपनी हीन अवस्था को छोड़कर उत्तम साधु बन सकता है।
साधुओं में संभोग-भेद देखकर कई भोले अनभिज्ञ लोग कहा करते हैं कि-देखो ! साधुओं में भी पक्षपात, ऊँच नीच की भावना और रागद्वेष की परिणति है । वे भी हम गृहस्थों की तरह पृथक्-पृथक् वर्गों में रहते हैं, सब मिलकर साथ नहीं रहते । इनके क्या लेना देना या जमीन जायदाद का बंटवारा करना है' इत्यादि । उन लोगों को आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी और जिनेश्वर भगवंतों के वचनों पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए । कुशीलियों अथवा शिथिलाचारियों के संसर्ग का त्याग करने का नियम, द्वेष भावना से नहीं बनाया गया, न लड़ाई झगड़ा करने के लिए । इसके पीछे सुसंयम की परिपाटी को सुरक्षित रखने, संसर्ग दोष से होने वाली हानि से बचने और जिनाज्ञा का पालन करने का पवित्र उद्देश्य रहा हुआ है ।
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