SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७७ ) प्रथम जे चारित्र परिणामो हता तेमां क्षति न पहोंचे किन्तु वृद्धि ज थाय तथाप्रकारे सहन करवं, आचरण सेवq. जे प्राचारोनुं सेवन करवा छतां आत्मा क्षणे क्षणे अधिक मलीन थतो होय, क्लिष्ट परिणतीयो पामतो होय, वधु कर्मबंध करतो होय तो ते कठीण आचारोनुं पालनपणुं निष्फळ ज समजवू. अरे! एक प्रकारे कर्मबंधमां हेतुभूत समजवू, माटे ज अहीं मूलमां ग्रंथकर्ताए 'सम्यक् ' ए पद प्राप्यु छ अर्थात् शुभ भावोथी प्राचारोनुं पालन करवू. फरी ए ज विषयने ग्रंथकार वधु स्पष्ट करे छेषष्ठाष्टमादिरूपं चित्रं, बाह्यं तपो महाकष्टं । अल्पोकरणसंधारणं च, तत् शुद्धता चैव ॥ २-४ ॥ मूलार्थ-सामान्य जनो जेने दुःखथी करी शके तेवा नाना प्रकारे छह अहम आदि बाह्यतपर्नु आचरण करवं, एवं पोतानो निर्वाह थइ जाय एटला ज अल्प वस्त्रपात्र आदि आधाकर्मी विगेरे दोषो रहित चारित्रना उपकरणो धारण करवा. " तपस्वरूप" . स्पष्टीकरण-जेनाथी आत्मा जाज्वल्यमान थइ पोतानी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy