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________________ ( ६५ ) सर्वज्ञना उपदेश साथै उपदेश के पोतानुं विष मेळव्युं अने ते अनर्थ कर्यो एज परमार्थ तत्त्व गणी शकाय निष्कर्ष के - या परथी सर्वज्ञनो उपदेश अनर्थ केम पेदा करे ? या शंकानुं बहु सुंदर रीते निर्मूलन थइ जाय छे, अमृत पण अमृतरूपे होय तो ज अधिकारीने उपकारी थाय छे, ए बात बराबर समजाय तेवी छे. ए रीते हीं सुधी या प्रस्तुत प्रकरणमां बाल, मध्यम, बुधना प्रकारो, तेना लक्षणो, तथा तेचोनुं स्वरूप, सद्धर्मनी परीक्षाना प्रकारो, सद्धर्मनी परीक्षा केम करवी, तेओने उपदेश पवन विधि, तेना पर रोगी तथा औषधनुं दृष्टांत विगेरे वातो जणावी, हवे ग्रंथकार प्रस्तुत अधिकारनो उपसंहार करी षोडशक नामक ग्रंथना प्रथम प्रकरणानी समाप्ति सूचवे छे. एतद्विज्ञायैवं यथाहं (थोचितं)। शुद्धभावसंपन्नः ॥ विधिवदिह यः प्रयुंक्ते । करोत्यसौ नियमतो बोधिं ॥ १६ ॥ मूलार्थ - ए रीते वक्ता बाल दिनुं यथास्थित स्वरूप जाणी जो शुद्धभावपूर्वक अने योग्यतानी परीक्षारूप विधि साथै श्रोताने उपदेश आपे तो ते वक्ता नितान्तेन सम्यक्त्व भाव पेदा करे छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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