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(५८) समय व्यर्थ जवाथी पठन-पाठनादिमां पण व्याघात पहोंचे छे. अतएव प्राचारांगमा पर्षद् जनस्वभाव अने धर्मरुचि विगेरे श्रोता संबंधी भावो जाण्या शिवाय उपदेश करवानी खुली मनाइ करी छे. निष्कर्ष-प्राचार्य-देश, काल, जनस्वभाव, लोकोनी अभिरुचि विगेरे वातो जाण्या वगर जे धर्मोपदेश करे ते शून्यरूप ज परिणमे-वधुमां अनर्थ करे; माटे अहीं ग्रंथकर्ता भार दइने जणावे छ के-" बालादिभावमेवं सम्यग्विज्ञाय" बराबर बाल विगेरेनुं प्रथम धर्मोपदेश स्वरूप जाणवू. ते जाण्या पछी ज धर्मोपदेश करवो. शिवायने शास्त्रोमां उंटवैद जेवा गण्या छे. आ उपदेशको पण हलदरनो टुकडो मलवाथी गांधी थइ बेसे तेवा तो न ज होवा जोइये. एटले एकाद ग्रंथ के चरित्र, अमुक लेख के भाषण, छुटक थोडाएक श्लोको मुखे याद करी लीधा अने पछी उपदेशकनो झंडो लइ लोकोने उपदेश प्रापवा दोडी जाय तेवा न जोइये। किन्तु प्राचार्य कहे छे के-“ गुरुणा" गुरुपणाना ययास्थित गुण जेमां होय, जेमके-धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥१॥"धर्म जाणकार, धर्मकर्ता, नित्य धर्ममा ज तत्पर, तथा भव्यात्माओने धर्मशास्त्रनो उपदेश अर्पनार गुरु कहीये." परमार्थ के-स्वशास्त्र अने परशास्त्रना ज्ञाता तथा नित्य धर्ममां ज दत्तचित्त एवा गीतार्थ महापुरुषो शिवाय अन्ये धर्मोपदेश प्रापवा बेस, ए केवल धर्म अने श्रोताने