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________________ (५३) मूलार्थ-अंतींद्रिय अर्थ दृष्टा एवा सर्वज्ञ भगवंतोए स्पष्टपणे कहेल वचनज परलोक संबंधी विधेय कार्योंमां मान्यप्रतिष्ठित गण्यु छे. फरी आ वचन सर्व क्षेत्रनी अपेक्षाए अनादिकालीन छे, ए प्रकारे त्रैर्दपर्य परमार्थनी शुद्धि जाणवी ।। ___स्पष्टीकरण-" अतींद्रियार्थदग्व्यक्तं " जगतमां पदार्थों के प्रकारना छे. एक तो इंद्रियदृश्य एटले आपणे सौ जेने देखी शकीये, अनुभवीये छीये ते अने बीजा जे इंद्रियदृश्य न होय किन्तु ज्ञानग्राह्य होय जेवा के-आत्मा, कर्म, परमाणु, धर्म, अधर्मास्तिकाय आदि जेने आपणे देखी शकता नथी पण तेवा अनंतज्ञानी देखे छे ते, अर्थात् बीजा नंबरना पदार्थो तेत्रोज देखी शके के जेोने कैवल्यज्ञान-अनंतज्ञान प्राप्त थयु होय. शिवाय अन्यने ते पदार्थ देखवानी शक्ति न होय. निदान के वीतराग भगवंतोज सर्वज्ञ होय अने तेत्रो ज श्रा बीजा नंबरना सर्व पदार्थने बराबर जोइ शके छे. आ परथी जेने जे पदार्थनुं यथास्थित ज्ञान नथी तेत्रो ते पदार्थनुं यथास्थित स्वरूप क्यांथी कही शके ? ए वात बराबर समजाय तेवी छे. एटले कोइ अज्ञेय पदार्थचं स्वरूप कथन करवानुं साहस करे तो ते पण अनवस्थित अने बाधित ज कथन करे, एम समजवू जोइए. पाथी तेना पर विश्वास स्थापन करवो ते आत्माने ठगावातुं कारण केम न थाय १ माटे अहीं हरिभद्रमूरिजी भागमवाक्यनी परीक्षामां त्रीजो प्रकार दर्शावता कहे छे के" परलोकविधौ मानं वचनं" परलोक संबंधी विधेय
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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