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________________ (४०३ ) मंत्रारोप करवो होय ते समये प्रथम कही गया ते प्रमाणे शरुआतमां शास्त्रमा जे स्वरूप कयुं छे ते रीते सम्यक्पणे मोक्षस्थ सिद्ध परमात्मानुं स्मरण करवू, तेओना प्रत्येक गुणोनुं अने ज्योतिरूपनुं समुचित ध्यान करवं, सिद्धना ध्यान साथे स्वात्मा अभेदभावे परिणमे तेम वर्तन करवू. एटले आगल जणावी गया ते रीते प्रतिष्ठाकर्ताना हृदयप्रदेशमा सिद्धमूर्त्तिनुं प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्बित थाय तेम करवू अने पछी मोक्षमां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन,अनंतअव्याबाधसुख ज्योतिरूपे बिराजे छे ते ज स्थितीए अहीं मूर्तिमा प्रतिष्ठाकर्ता " णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं.” ए मंत्रोच्चारपूर्वक स्वहृदयस्थ परमात्मदेव विषयक स्वात्मभावनो आरोप अनेक सशुद्ध विधि सह मनःकल्पनाथी करे. आ आरोप करती वखते प्रतिष्ठाकर्ता मन-वचन अने काया ए त्रणे योगथी केवल सिद्ध परमात्मामांज सोपयोगरूपे बनी अन्य कांइ पण ख्याल न राखी एकात्मभावे मूर्तिमां हुं केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि शक्तिविशिष्ट चिद्स्वरूपनी स्थापना करूंछं एवं ध्यान करे. आनुं नाम योगिओ अने प्रतिष्ठातत्त्वज्ञो बाह्य मूर्तिप्रतिष्ठा निर्देशे छे. आ प्रतिष्ठा शामाटे कही ? अर्थात् आ प्रतिष्ठानुं शुं फल थाय ? ए वातनो उल्लेख शास्त्रकर्ता जणावे छे. बीजन्यासः सोऽयं, मुक्तौ भावविनिवेशतः परमः ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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