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________________ ( ३७० ) समये तेओनी पूजा करवी न्यायसंगत ज छे. उचित समये साधर्मीनो सत्कार न करवो, एना समान अन्य अज्ञानता अथवा धर्मतत्त्वनुं अनादरपणुं क्युं कहेवाय ? ए रीते देवताओनो सत्कार कर्या पछी चंद्र, नक्षत्र, ग्रहादिकना शुभयोगमा प्रतिमा स्थापन उचित स्थल पर मंगलमय गायनादिपूर्वक चंदनादि पदार्थो सह मूर्त्तिने पधराववी, अने प्रतिष्ठा - कल्पमां वर्णवेल सुगन्धी द्रव्यमिश्रित जलथी मूर्त्तिने पखाली शुद्ध करवी जेथी मूर्त्ति प्रतिष्ठा योग्य थाय, तेमज जिनमूर्त्तिनी समिपे चार दिशाओमां चांदी, सुवर्ण, रत्न, पुष्प आदि पदार्थोवडे भरेला अथवा युक्त चार मंगलकुंभो स्थापन करवा. आ कुंभो पण हाथथी कांतेल अने चार शरवाला सुतरथी मुख बांधीने स्थापवा, एटले कन्यासुतरथी मुख बांधीने स्थापन करवा, त्यारपछी घी अने गुडथी भरेला मंगलदीपको स्थापना, तथा खाजा विगेरे मनोहर खाद्य पदार्थो धरवा, अखंड शेरडीनां सांठा, केळ, जूवारारोपण, चंदन अने स्वस्तिक विगेरे करवा, ऋद्धि वृद्धि नामनी औषधियोए करीने सहित अनेक मंगलकंकणो मूकवा. पछी प्रथम दिवसे सुगंधी गंधयुक्त एवा चंदनथी मूर्त्तिने विलेपन करवुं अने सौभाग्यवंती तथा उत्तम प्रशस्त वेश अलंकारवती चार अथवा अधिक स्त्रीयोए मूर्त्तिने पोंखवी. अहीं जे दिवसे विलेपन - पूजा आदि करवी ते दिवसे प्रधान प्रधानतर द्रव्यो, औषधियो, फलो, वस्त्रो, सुवर्ण, मणि, मौक्तिक विगेरे अनेक पदार्थोथी बनी शके तो
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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