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________________ (३६२) लोकोत्तरमन्यदतो, लौकिकमभ्युदयसारं च ॥७-१४ ॥ मूलार्थ-दर्शित आशय पवित्रता सहित जे जिनबिंब करावीए तेने शास्त्रज्ञो लोकोत्तर कार्य कहे छे, अने प्राथी विपरीत रीते करावीए तेने लौकिक कार्य जणावे छे; परंतु आ लौकिक कार्य केवल मानप्रतिष्ठा आदि फलने ज अर्पण करे. " स्पष्टीकरण" आशयनी पवित्रता माटे जे विधान कह्यं ते ज प्रमाणे जे जिनबिंबरूप कार्य थाय अने तेथी अन्यथा रीते जे कार्य थाय, मा बन्ने कार्योना नाम अने फलमां अवश्य भेद होय छे, ए ज वातने स्पष्ट करवा पा श्लोक ग्रंथकारे कसो छ. एटले के लौकिक तथा लोकोत्तर ए प्रमाणे कार्यना ने विभागो थइ शके. जे कार्यों शुद्ध छता मात्र लौकिक फलने ज अ ते लौकिक, अने जे कार्य लोकोत्तर आत्मकल्याण, कर्मनिर्जरा फलने अर्पे ते लोकोत्तर. अहीं शास्त्रकार कहे के के-जेश्रो प्रथम कही गया ए रीते आशयपवित्रता साथे जिनबिंब करावे तो आ कार्यने शास्त्रज्ञो-तत्त्वज्ञानीयो लोकोत्तर कार्य एटले एकान्तकल्याण मोक्षफल. दायी कार्य कहे छे. ज्यारे ए विधि भने आशयपवित्रता विना जो करावे तो लौकिक कार्य मान, कीर्ति आदि फल
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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