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________________ (३६०) मुख्य आधार अंतःकरणनी शुभ वृत्तिो पर ज राख्यो के. ए ज भावनी पुष्टि व्यवहार भाष्यमां आ प्रमाणे करी छे. " लक्खणजुत्ता पडिमा, पासाईआ समत्तलंकारा ॥ पल्हायइ जह व मणं तह, णिज्जरमो वियाणाहि" ॥१॥ " लक्षणे करी युक्त अने समस्त अलंकार अलंकृत एवी जिनप्रतिमा तथा जिनप्रासाद देखीने जेम जेम मन अधिक प्रसन्न थाय तेम तेम निर्जरा अधिक थाय एम जाणवू." अहीं मननी जेम जेम अधिक प्रसन्नता तेम तेम अधिक कर्मनिर्जरा थाय एम कथन करवानो सूत्रकारनो माशय छे, एटले भाव ज प्रधान छ एम जाणवू. अत्र प्राशय विशेषथी लाभ विशेष थाय ए भाव जणाव्यो, परन्तु भा भाव क्या प्रकारे वर्तन करवाथी पवित्र थाय ए वात ग्रंथकार दर्शावे छे. आगमतन्त्रः सततं, तद्वद्भक्त्यादिलिंगसंसिद्धः॥ चेष्टायां तत्स्मृतिमान् , शस्तः खल्वाशयविशेषः ॥ ७-१३ ॥ मूलार्थ-भागमनिर्दिष्ट मात्र गमन करवू, आगमवानोनी पूजा-बहुमान आदि व्यापारो करवामां सतत प्रवृति करवी, आगमने याद करवू, आ प्रमाणे वर्तवाथी प्राशयनी निश्चित पवित्रता थाय छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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