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________________ ( ३३१ ) एके - प्रा हिंसामां भावहिसानुं लक्षण सुघटित थतुं नथी. थी हिंसाने हिंसा शास्त्रोए नथी मानी, एटले अहीं आचार्य कहे छे के—' यतनातो न च हिंसा ' प्रयत्न एकान्त उपयोगपूर्वक वर्तन करवाथी हिंसाजन्य दोष उद्भवतो नथी, ए जवात शास्त्र दर्शावे छे. " रागद्दोसविउत्तो जोगो असदस्स होइ जयणाओ" " अशठ- श्रमलीन परिणामी अने शास्त्राज्ञाथी यतनापूर्वक वर्तनार मनुष्योनो व्यापार-वर्तन रागद्वेषविहीन ज होय. " अहीं उपयोगथी अने शास्त्राज्ञाथी अशठ प्रवृति करनारने भावहिंसाजन्य दोष न लागे ए शास्त्रकारनो कथिताशय छे. खरी रीते शास्त्रकारो भावहिंसा वर्जवानो एकान्त उपदेश करे छे, ज्यारे मंदिर बंधानार हिंसा त्यजी कार्य करे छे एटले तेमां हिंसादोष नो सद्भाव केम मनाय ? निदान ए के सर्वथा यतनापूर्वक कार्य करवं, ए ज वात पंचाशकमां दर्शावी छे. “ जयणा य पयत्तेणं कायव्वा एत्थ सव्वजोगेसु । जयणा उ धम्मसारो जं भणिया वीयरागेहिं " ॥ १ ॥ “ जिनमंदिर विधानमां मंदिर उपयोगी दरेक पदार्थों जीवरक्षा करवापूर्वक अने शुद्धिपूर्वक लाववा, कारण के जैनशासनमां सर्व व्यापारो प्रयत्नथी यतनापूर्वक करवानुं कहुँ छे; केम के धर्मनो मुख्य सार वीतरागदेवे खास यतना - सोपयोगव्यापार को के." परमार्थ ए के - सोपयोग वर्तनार आत्मा सम्यकत्व, ज्ञान, चारित्र ने श्रद्धा, बोध अने आसेवनथी आराधी "
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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