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( ३१५ ) अतिसंधानं चैषां, ___ कर्त्तव्यं न खलु धर्ममित्राणां ॥ न व्याजादिह धर्मो,
भवति तु शुद्धाशयादेव ॥६-११ ॥ मूलार्थ-मंदिर बांधनार कारीगरो पण निश्चयथी धर्ममित्रो होवाथी तेश्रोने कदापि ठगवा नहीं, कारण के प्रपंचथी
आ मंदिर बांधवामां धर्म थतो नथी किन्तु आशय पवित्र राखवाथी ज धर्मप्राप्ति थाय छे. " स्पष्टीकरण"
ग्रंथकर्ता धर्मर्नु लक्षण शरुआतमा ज 'अंत:करणनी पवित्रता' रूप जणावी गया छे. एटले जैन सिद्धान्तनिर्दिष्ट उत्तम धर्मक्रियानी प्राप्ति आशयनी पवित्रता होय तो ज थाय, अन्यथा श्राशयनी पवित्रता विना दुष्ट अंतःकरणपूर्वक क्रोडो वर्ष पर्यंत केटलीए धर्मक्रियानुं आचरण करे तो पण तेथी कष्टफल सिवाय अन्य फल मलतुं नथी. अतएव ग्रंथकर्ता श्रा श्लोकमां दर्शावे छे के ' भवति तु शुद्धाशयादेव' पवित्र आशय राखवाथी ज धर्म थाय. अहीं ग्रंथकारे अन्तमा 'एव' कार प्रापी निश्चय जणाव्यो छे अर्थात् प्रा विना धर्म न ज थाय, माटे मंदिर बंधावनारे कृपणता करी कारीगरोने ठरावेल पैसा आपवामां प्रपंच के छळ करवो नहीं, अथवा पैसाना बदले पोतानी दुकान परथी कांइ माल पापी तेमांथी नफो खावानी