SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३११ ) काष्ठो सरल, वक्रता विनाना, गर्भवाला प्रधान अने नवा लेवा. जीर्ण थया न होय, कीडायो पड्या न होय, तेमज जेमां गांठ के अन्य दूषणो जरा पण लागेल न होय तेवा ज काष्ठो मंदिरना कार्यमा लेवा, जेथी मंदिर दीर्घकाल पर्यंत स्थिर रहे, कोइ पण मिथ्यात्वी देवो विगेरे उपद्रव न करे. अहीं पण प्रथम कहेल वात अवश्य ध्यानमा राखवी, एटले केव्यापारीओ पोताना व्यापार अथ लाकडा लाव्या होय तेनी पासेथी उचित मूल्य प्रापी, भारवाहकोने उचित भाडं पापी संतुष्ट करी लाववा; किन्तु मंदिरना माटे वनकर्म करवू शास्त्रो उचित मानता नथी. विधिपूर्वक पत्थर, काष्ठो विगेरे लाववा एम कही गया. अहीं ते पदार्थो लाववानी विधि शुं छे ते जणावे छे. सर्वत्र शकूनपूर्व, ग्रहणादावत्र वर्तितव्यमिति ॥ पूर्णकलशादिरूप श्चित्तोत्साहानुगः शकुनः ॥६-९ ॥ मूलार्थ:-पत्थर, इंट, काष्ठ आदि मंदिर माटे शकून देखीने लेवा तथा लाववा. अहीं बाह्य शकूनो जलभृतकुंभ लइने कोइ कन्या विगेरे सामे आवे ते विगेरे अने आभ्यन्तर शकूनो चित्तनी प्रसन्नता, गुरुआज्ञा आदि जाणवा.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy