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यदि अन्यनो अभिभव थतो होय, बीजाप्रोने दुःख थतुं होय, कांइ नुकशान थतुं होय अगर पीडा के क्लेश थता होय तो अवश्य तेनो त्याग करवो जोइए. निदान ए के-कोइने पण अभिभव के क्लेश उपजाव्या वगर अने सर्वने संतोष पमाडी जिनभवन बंधावयूँ तो ज धर्मनिष्पत्ति थाय. अन्यथा शास्त्रकार कहे छे के-जे प्रवृत्तिमां शास्त्रबहुमान न सचवाय, परनो पराभव थाय, अन्यने क्लेशो थाय तो ते पापनिष्पत्तिकारक ज गणाय. यशोविजयजी महाराज कहे छ के-जे हेतुओ धर्मसिद्धिकारक कह्या छे ते ज हेतुप्रो विरुद्ध वर्तन करवाथी पापकारक बने छे, कारण के जे मात्रामओ शरीरनी पुष्टि करे छे ते ज मात्रायो अपथ्य करवाथी शरीरनी क्षीणता करे ए अनुभवसिद्ध छे.
उपर कडं एटलुं ज नहीं पण या प्रमाणे करवाथी धर्मनिष्पत्ति थाय छे. यथातत्रासन्नोऽपि जनो
संबन्ध्यपि दानमानसत्कारैः ॥ कुशलाशयवान् कार्यों,
नियमाद् बोध्यंगमयमस्य ॥ ६-६॥ मूलार्थ:-जिनप्रासाद बांधती वखते स्वजनादि संबंधशून्य लोको त्यां आसपास रहेता होय तेमनो पण अवश्य