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________________ ( २९६ ) मंदिर अन्य पासे करावे अने पोते जिनभवनना जे जे कारणो होय तेने प्राप्त करे. आथी अधिकारीए आ कार्य आरंभ्यूं होवाथी तेने अतिशय परमफलनी सिद्धि थाय. " स्पष्टीकरण" प्रथम सामान्य धर्मना गुणो औदार्य आदि प्राप्त थाय, त्यारवाद सिद्धान्तवचननो प्रेम, परमश्रद्धा अने परिणमन थया पछी विधिनो बोध, आदर, करणप्रीति तथा क्रमशः विधिसह क्रियाकुशलता तेम ज प्रत्येक क्रियानो विधिबोध थाय. एटले महादान, इष्टपूजा, सत्सेवा-या प्रमाणे आत्मशुद्धि अने एकान्त कर्मक्षयकारक लोकोत्तरतत्त्वनी परमगुणनी प्राप्ति थाय. जेने या प्रमाणे क्रमशः अथवा उत्क्रमथी ए गुणो हृदयंगम थाय ते अवश्यमेव स्वोपार्जित धन चंचल, क्षणिक, विनश्वर धारी तेनो महादानमां, जिनपूजामा अने गुरुभक्तिमां उत्साहथी व्यय करे, धर्मवृद्धि, समकितप्राप्तिसंरक्षण अने तेनी शुद्धि तेम ज शासनप्रभावना विगेरे कार्यों स्वजींदगीमां अनेक वार ते धनथी करे, एटले वस्तुतः धन उपर आ आत्मा गाढ मोह राखे नहीं. छेवटे वीतरागदेवनी महापूजाना लोभथी पोतानी कुटुंबनी अने समान धर्मीयोनी सरलता माटे नित्य धर्मवृद्धि थाय ते सारु अने आत्मानी पवित्र भावना बनी रहे तेमज कुटुंबीयो धर्म अने स्वकर्तव्यथी च्युत न थाय ते माटे तथा समकितनी निर्मलता-उज्वलता माटे शास्त्रकर्ता कहे छे के-' नियमात् ' निश्चयथी अथवा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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