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________________ (२८६) पूजवाने ललचाशो. यदि पाटली तमारामां सन्मति न होय तो पछी त्यागी अस्वार्थी शुद्धोपदेशक तत्त्वदर्शी महर्षियो जे कहे ते ध्यानमा राखी ते प्रमाणे वर्तन करशो तो ज तमे तमारं हित साधी शकशो. हरिभद्रमूरिजी तो कहे छे के-" पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष कपिलादिषु । युक्तिमवचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः" ॥१॥ " महावीर परत्वे मने राग नथी ने कपिलादिको प्रति मने द्वेषभाव नथी परंतु जेोनुं वचन युक्ति अने प्रमाणादिथी बाधित नथी थतुं तेश्रोनुंज वचन स्वीकारवु योग्य छे." शास्त्रोमां देवना ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर, अचिंत्यशक्ति, अखिलगुणाधीश, सर्वदोषातीत, सर्वज्ञ, वीतराग, जिनेश्वर, तीर्थकर, सच्चिदानंदमय विगेरे सहस्रशः नामो प्रसिद्ध छे, एटले आ सर्व नामोनो समन्वय देवमां अवश्य थवो जोइए, अन्यथा ते खाली नामो गोवालना छोकरानुं इन्द्र नामनी जेम हास्यपात्र गणाय. एक बाजु ईश्वरपणानी प्रख्याती अने बीजी बाजु तेवा गुणो न होय तो ते हास्यजनक केम न गणाय ? अने आई ईश्वरपगुं प्राप्त करी कोने पूजवानुं मन न ललचाय ? अतएव प्रथम तो ईश्वर देवाधिदेवमां जगतना सर्व अपलक्षणो रहित राग-द्वेष अने अज्ञान चेष्टा विनाना शुद्ध सत्य निराबाध तत्ववक्ता तथा सर्वज्ञपणुं आ लक्षणो अवश्यमेव सुघटित थवा जोइये. ईश्वरना आ लक्षणोनी परीक्षा तेोनी जीवनक्रीडा, व्यवहार अने उपदेश परथी सुलक्षित थाय छे. जेोए पोताना जीवन व्यवहार दरमियान हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, तृष्णा आदि दुर्गुमोने
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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