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(२८३) अने सेवकोने संभाळे नहीं, धर्मनी उपेक्षा करे तेत्रो ज परि. णामे जोखममा प्रावी पडे छे ए ज वात आचार्य धर्मबिंदुमां स्पष्ट करीने समजावे छे. “पादमायान्निधिं कुर्यात् , व्यापारादि द्वाराए प्राप्त ययेल पैसानो चोथो भाग निधिपणे स्थापन करवो."
एटले अहीं प्राचार्यश्री ध्वनित करे के के-न्यायथी धन श्रावेल होय छतां जो नोकर-चाकरोने नाराज करी तेनो धर्मकार्यमां व्यय थाय तो ते व्यय सुष्ठु धर्मफलने पापी शके नहीं किंतु ए तो उपांगहीन धर्म कहेवाय; माटे धर्ममां व्यय करनारे, दानादि करनारे, 'भृत्यानुपरोधतो सेवक-नोकरोने संताप, खेद, असंतोष न थाय तेम करी पछी ज, तेमज मातापिताने पण संतोषी, तेरोनी आज्ञामां वर्ती धर्म साधन करे. पाथी जेश्रो जींदगीभर दानादि उत्तम कार्यों करे अने मातापितानी उपेक्षा करे, अपमानित करे, संतापे, तेयोनी सारसंभाळ ले नहीं, आज्ञा माने नहीं तेत्रो जैनशास्त्र दृष्टिए सर्वोगपूर्ण धर्माराधक न गणाय; पण उपांगहीन धर्म आराधक ज -गणाय छे. एथी तेश्रोने योग्य फल पामवाने अधिकारी नथी मान्या, कारण के धर्मीनो प्राथमिक सदाचार शास्त्रों " मातापितृसंपूजक: " ए वाक्यथी 'पातापितानी पूजा करनार' एम वर्णवे छे. खरु के के-जेश्रो परमोपकारी मातापितानो अनादर करे तेत्रो धर्म अने धर्मोपदेशकोनो अनादर केम न करे ? कारण के जेनो लाखोनी चोरी करे तेत्रोने