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________________ . एटले या विघातक जे दना उदयथीं ( २७१) वेदनीयपणे समजबो. अर्थात् मोहोदयथी व्याकुलता बने अने वेदनीयोदयथी अशांति, दुःख विगेरे पेदा थाय छे. एटले श्रा प्रमाणे भेद पाडवामां कांइ विघातक जे जणातुं नथी, तथा पुरुषवेदना उदयथीं मैथुनक्रिया ( स्त्री-पुरुषनो संयोग) माटे स्त्रीयोना गुह्य भागो निरखवा, तेने देखी मुखनी प्रसन्नता, साथलो स्तंभित थवा अने शरीरमा धुजारी छुटवी-या सर्व विकारो जे संज्ञाबलथी थाय तेनुं नाम त्रीजी मैथुनसंज्ञा कही छे. परमार्थ ए के-त्रण वेद पैकी कोइ पण वेदना उदयथी पुरुष स्त्रीने, स्त्री पुरुषने अने नपुंसक उभयने चाहे एवं त्यारबाद पोतानी मैथुन जिज्ञासा तृप्त करवाने जे कांइ विरुद्ध क्रीडा करे अथवा इच्छा मात्र करे ते सर्वने ग्रंथकर्ताओ मैथुनसंज्ञानो ज उदय माने छे. मैथुनसंज्ञानो आ अर्थ यदि न स्वीकार्य थाय तो एकेंद्रियो, विकलेंद्रियो तथा नारकी अने संमृच्छिम जीवोमां आ संज्ञा केम घटावी शकाय ? अतएव उपरोक्त अर्थ स्वीकार्य छे. 'लोभमोहनीय' ना उदयथी संसारवृद्धिना कारणरूप अने आसक्तिपूर्वक सजीव निर्जीव पदार्थो एकत्र करवा आत्म संबंधी जे जे व्यापारो ते परिग्रहसंज्ञा. क्रोधना उदयथी दुष्ट परिणाम सहित आवेशनो जे परिणाम अने मुख, नेत्र, दांत, ओष्ठ ए सर्वेनुं जे चेष्टाथी मुकाइ जर्बु ते क्रोधसंज्ञा अथवा श्रावेशवालं जे चित्त ते पण क्रोधसंज्ञा जाणवी. मानना उदयथी अहंकारवाली अभिमान 'हुँ' पणानी जे परिणति ते मानसंज्ञा, तथा ' लोभ' ना उदयथी तृष्णा सहित सजीव-निर्जीव पदार्थोनी इच्छा करवी ते लोभसंज्ञा.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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