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( २६७ ) हितरूपे अने स्वकल्याणपणे माने छे. आवा ज्ञान- मुख्य फल श्राचारांग टीकाकार "ज्ञानस्य फलं विरतिः" ज्ञान- फल हेयपदार्थनो त्याग अने पुद्गल सुखनो अमोह प्राप्त यवो एज कहे छे. आथी अहीं पण आ ज्ञान जागृत थवाथी तेना फल. रूपे सदनुष्ठान एटले विरतिरूप शुद्ध परिणती आत्माने प्राप्त थाय छे. अतएव आ आगमपरिणति अति प्रशस्यतर अहीं जणावी. परमार्थ ए के-पुद्गलोबो प्रेम अने विषयसुख प्रति उदासीनता आत्माने शुद्ध ज्ञान विना प्रगटवी दुर्लभतर होय छे, तो सद् औषधथी दीर्घ कालना पण रोगो नाश पामे के तेम अनादिना तीव्र राग-द्वेषादि भाव रोगो प्रा तस्वसंवेदन नामे ज्ञान-प्रकाशरूप औषधबलथी एकाएक नाश पामे के, विरति परिणाम जागृत थाय छे माटे आ 'आगमपरिणति' चरम पुद्गलपरावर्तकालमा ज प्राप्त थाय छे अने ते एकान्त प्रशस्यतम महर्षिोए जणावी छे. प्राथी ज भागमवचनना अधिकारी उपरोक्त आत्मा सिवाय अन्य आत्माओनो ग्रंथकर्ताए निषेध कर्यो.
तत्त्वबोध पामवाथी जे विरतिरूप सद्नुष्ठाननी पूर्णतया प्राप्ति थाय तेनो खास हेतु ग्रंथकार जणावे छे अथवा तत्त्वबोध पामवाथी जे सद्नुष्ठान आत्मा श्रादरे तेमां विशिष्टता शुं छे ? तेनो खुलासो अहीं दर्शावे के
दशसंज्ञाविष्कंभण
योगे सत्यविकलं ह्यदो भवति ।