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( २६० ) मूलार्थ-आगम-दीपकमां भ्रान्तिनो आरोप करवाथी विधिमार्गमां विपर्यास भाव थाय छे, अने जे आगममां दानादि भावोनुं फल स्पष्ट कयुं छे एवा दानादि भावोने अविधिभावे सेवे छे. आ पापिष्ठ एवी अविधिसेवा आगमतत्त्वने यथार्थपणे देखनाराअोने भ्रांतिमंडल विना क्यांथी संभवे ? अर्थात् सम्यग्दृष्टिप्रोने आ अविधिसेवा कदापि होय ज नहीं. . स्पष्टीकरण"
भ्रान्तहृदयीने आगमवचन अन्यथा परिणमे छे अने त्यारबाद सत्य तत्वने असत्य तरीके अने विधिने अविधिरूपे. मार्गने कुमार्ग तरीके आदरे छे, जेथी दरेक क्रियाश्रो पा
आत्मा अविधिभावे सेवे छे कारण के भ्रान्तद्रष्टि तेने सर्वत्र अन्यथा ज भान करावे छे. अतएव अहीं ग्रंथकर्ताए 'तत एव' पदथी भ्रान्तभाव पामवाथी ज पा अन्यथा मति आत्मा दान, शील, तप अने भाव विगेरे धर्मो अविधिभावे सेवे छे एम जणाव्यु. आ धर्मो आदरवार्नु फल शास्त्रोमां कर्मनिर्जरा अने ते द्वाराए मोक्षप्राप्ति कही छे. सुपात्रदान, अभयदान अने अनुकंपादान पवित्र अाशयपूर्वक होवाथी तेनुं फल कर्मनिजरा अने शुभबंध जग्णाव्युं छे. 'तवो वोदाणफले' तपर्नु फल एकान्त कर्मनिर्जरा, शीलनुं फल प्रात्मस्वरूपनी निर्मलता अने भावनुं फल हृदयना मलनो नाश अने त्यारपछी आ धर्मोथी सर्वथा अात्मानी कोथी मुक्ति कही छे. भावार्थ ए के-देवर्द्धि, राजद्धि के संपत्ति अथवा भोगप्राप्ति ए आ धर्मोन