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________________ ( २५७) शमनीयमिवाभिनवे ज्वरोदये काल इति कृत्वा ॥ ५-४ ॥ मूलार्थ-तुरत प्रगट थयेला अभिनव ज्वरमां औषध गुणकारी यतुं नथी कारण के समय पाक्यो नथी. ए प्रमाणे शास्त्रोना पथ्य वचनो पण अंतिम पुद्गलपरावर्त्तथी अधिक संसारीने सम्यकपणे कदापि परिणमता नथी-हितकारी बनता नथी ए खास अहीं नियम छे. " स्पष्टीकरण" त्रीजा श्लोकना विवरणमा समकित' प्राप्ति अंतिम पुद्गलपरावर्तमां ज थाय तेनुं कारण स्पष्टपणे विस्तारथी जणाव्यु, ए ज वात अहीं अधिक स्पष्ट करे छे. अभिनव ज्वरोदयमां औषध आप्यु होय छतां ज्वर पाक्या विना ते पोतानुं कार्य करी शकतुं नथी, किन्तु ज्वरनो काल पाके त्यारे ब सफल थाय छे एवं शास्त्रवचन पण अधिक संसारीने कदापि सद्भावने-मोक्ष-इच्छाने उपजावी शकतुं नथी. अर्थात् ग्राहक, श्रोता, अभ्यासी आत्मा कांइक सरल परिणामी, पुण्यरुचि, सन्मार्ग इच्छक बने त्यारे ज शास्त्रवचनो हृदयमा उच्चभाव पेदा करी शके, अन्यथा ते ज शास्त्रवचनो विकारभाव उपजावनार बने छे एवो दृढ नियम अहीं बांध्यो छे; माटे ज अंतिम पुद्गलपरावर्तकालमा समकितनो लाभ थाय अने मोक्ष-अभिलाषा प्रगट थाय छे, परंतु ते पहेला थाय ज नहीं. १७
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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