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( २४७) णाने ओळखावे छे तेम अात्माने धर्मी पण बनावे के कारण के-श्रा " औदार्य" आदि भावोनी प्राप्ति थया पछी उत्तरोत्तर क्रमशः पुण्यप्राप्तिना साधनो प्राप्त करावे छे, जेथी उत्तरोत्तर पुण्यनो प्रवाह चाल्या करे छे तेमज ज्ञानयोगना साधनोनी पण अनेकधा प्राप्ति थाय छे. अतएव आ लिंग-चिह्न स्वजन्य फलप्राप्ति कराववा माटे अवंध्य-अबाधित सत्कारणभूत छ, अर्थात् ज्ञानयोगनी अने पुण्यबंधना साधनोनी प्राप्ति " औदार्य" आदि गुण विना सर्वथा असंभाव्य तथा अशक्य ज छे. हेतु ए के-" दया भूतेषु वैराग्यं, विधिदानं यथोचितम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्योपायाः प्रकीर्तिताः"॥१॥" सर्व भूतो पर दया, वैराग्यभाव, यथोचित विधिपूर्वक दान अने अकलंक शीलवृत्ति-ए चारे पुण्यप्राप्तिना उपायो कह्या छे." या श्लोकोक्त पुण्यना साधनो एकत्र करवा माटे अवश्यमेव पूर्वे जणावेल “औदार्य" आदि भावोनी अपेक्षा रहे छे. प्राथीज पुण्यप्राप्तिनी साधनसिद्धिनुं अने ज्ञानयोग साधनप्राप्तिनुं अवंध्य कारण जिनेश्वरोए उपरोक्त लिंग दर्शाव्यु. पुनः 'सिद्धं' ए पदथी आ दर्शित चिह्न प्रतिष्ठित एटले प्रमाणोपपन्न छे एम कही जेनोने . स्व प्रात्माने धर्मी बनाववो होय तेमोए प्रथम उपर कहेल गुणो प्राप्त करवा रढ संकल्प सामे दृढ प्रयत्न करवानी खास आवश्यक्ता छे, ए भाव ध्वनित करी ते गुणो प्रति ग्रंथकर्ता भव्य आत्मानुं खास ध्यान खेंचे छे.