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________________ ( १४५ ) परसुखतुष्टिर्मुदिता परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ ४–१५ ॥ हित केम पामे दुःख रहित केम मूलार्थ - अन्य आत्माओ पोतानुं एम विचारखुं ते मैत्री १, तथा अन्य ग्रात्मा थाय ए विचारखुं ते करुणा २, अन्यनुं सुख देखी प्रसन्न थ ते मुदिता ३ ने अन्यना दोषो देखी तेनी उपेक्षा करवी उपेक्षा ४. " स्पष्टीकरण " श्लोको भाव घणो ज स्पष्ट होवाथी तेमज आागल उपर आ चारे भावनानुं विशिष्ट स्वरूप कहेवामां आवशे ए कारणथी अत्रे चारे भावनानुं स्वरूप विचारवामां वधु उतर्या नथी. ए प्रकारे अभ्यासरूप मैत्री आदि गुणोनुं स्वरूप कथा पछी ' धर्मतस्व ' ना लक्षणोनो उपसंहार करवानी इच्छाथी ग्रंथकर्ता चतुर्थ षोडशक प्रकरणानी समाप्ति सूचन करे छे. एतज्जिनप्रणीतं लिंगं खलु धर्मसिद्धिमज्जन्तोः । पुण्यादिसिद्धिसिद्धेः सिद्धं सद्धेतुभावेन ॥ ४-१६ ॥ मूलार्थ - धर्मनी यथार्थ सिद्धि जे भ्रात्मा पाम्यो होय
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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