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________________ (२२६ ) श्वानवृत्तिए विषयान्ध बनी विषयेच्छापूरक शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गंधादि पदार्थोनी प्राप्ति अर्थे अति तृष्णाथी चेष्टाओ करे छे. अतएव ा तृष्णाने शास्त्रकर्ताए प्रथमनी तृष्णाथी अलग पाडी अतिविषयतृष्णा एवं नाम प्राप्यु, कारण के आ तृष्णाना उदयथी आत्मा पोतार्नु हित अने इहलोक-परलोकन कल्याण विचारी शकतो नथी, एवं धर्म पण करी शकतो नथी.एक कविए बराबरज कयुं छे के:-"दिवा पश्यति नो घूका, काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो, दिवा नक्तं न पश्यति" ॥ १ ॥ “घुवड दिवसे देखतुं नथी अने कागडो रात्रीए देखतो नथी त्यारे कामान्ध दिवस अने रात्रिए पण देखतो नथी." तेमज-"दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, कामान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति । कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलसश्रीमल्लतापल्लवा-नारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते" ॥२॥ " जगतमां अन्ध मनुष्य समीपे रहेल दृश्य पदार्थो देखतो नथी ए वात कांइ आश्चर्य करे तेवी नथी, पण कामान्ध जन तो पासे रहेल होय अने दृश्य होय तेनो त्याग करी जे समीपे अने दृश्य पण न होय तेवा पदार्थोने देखे छे, कारण के स्त्रीओना प्रत्येक अवयवो अशुचि तथा बीभत्स छतां नेत्रमा कमलनो, मुखमां पूर्णचन्द्रनो, स्तनमां कलशनो, भुजामां लतानो आरोप करी स्त्रीना अवयवो देखी प्रसन्न थाय छे." प्रावी स्थितिए पहों
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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