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________________ ( २२३ ) स्पष्ट कथन करे छे. अन्यथा था ' दोषाभाव ' नुं भिन्न स्वरूप दर्शाववानी जरुर नथी. श्रा पापविकारो गाढ विषयतृष्णा १ दृष्टिसंमोह २, धर्मपथ्यमां अरुचि ३ अने क्रोधकंडूति ४ जाणवा. आा चारे विकारोनुं विशेष स्वरूप ग्रंथकर्ता पोते ज विस्तारथी दर्शावशे एटले श्रमे अहीं नाम मात्रनुं ज सूचन कर्यु. प्रथम विषयतृष्णा नुं लक्षण जणावे छे. गम्यागम्यविभागं त्यक्त्वा सर्वत्र वर्तते जन्तुः । विषयेष्ववितृप्तात्मा यतो भृशं विषयतृष्णेयम् ॥ ४-१० ॥ मूलार्थ - शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गंध ए पांच विषयो छे. आ विषयोथी जेमोनो आत्मा संतोष नथो पाम्यो तेवा गम्य ने अगम्यनो विवेक विचार्या वगर चारे तरफ फांफां मारे छे माटे अन्य विषयवासनानी अपेक्षाए या गाढ तृष्णा भान भूलावनार होवाथी आनुं नाम विषयतृष्णा नामे पापविकार विद्वानोए कह्यो. " स्पष्टीकरण विषयतृष्णा नामे प्रथम पापविकारनुं स्वरूप यहीं जगावे छे तेमां संसारीने अंगे विषयेच्छानो सर्वथा अभाव मानवो अकल्पनीय छे. अनादिनी उदयगत विषयेच्छा पूर्ण करवाने ज संसार संसारीओ रचे छे, आाथी अहीं "
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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