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________________ ( १८२ ) कगुणीनो विनय विगेरे, मध्यमगुणी तथा हीनगुणी पर दयाभाव करवाथी प्रात्मा धर्ममार्गनी बराबर सिद्धि करवाने समर्थ बने छे. भावी चेष्टाओद्वारा धर्मी आत्मामां सिद्धि नामनो चतुर्थ श्राशयनो जन्म थयो के एम जाणी शकाय. टुंकमांआदि लब्धिधरो आदिनी सामा जर्बु, तेश्रोना दर्शन, गुणानुवाद, शुभद्रव्योथी पूजा-नमस्कार आदि करवा. आम करवाथी नितान्त स्वसम्यक्त्वनी शुद्धि थाय छे; तथा जिनेश्वरोना जन्म, दीक्षा, केवल, निर्वाणभूमिना देवलोक, मेरुपर्वत, नंदीश्वरद्वीप, पातालभुवन, आदिना शाश्वत चैत्योना, अष्टापद, रैवताचल, गजाप्रपद, तक्षशिला बाहुबलीजीनी राजधानी, धरणेन्द्र महाराजे ज्या पार्श्वनाथजीनो महिमा को हतो ते स्थानमां, रथावर्तपर्वत, जे स्थलेथी वीरभगवाननुं शरण लइ चमरेन्द्रे उत्पात को हतो, आ सर्व स्थानोना दर्शन, स्पर्शन, पूजा, नमस्कार करवाथी पण समकित निर्मल थाय छ " पुनः " गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितह इमं नाणं । इय एगंतमुवगया गुणपञ्चइया इमे भत्था ॥ १ ॥ गुणमाहप्पा इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य । पोराणचेइयाणि य इय एसा दंसणे होइ" ॥ २ ॥ " पवित्र बुद्धिमान् आत्माआ आचार्यभगवंत बीजगणित तथा निमत्तशास्त्रोना पारंगत छ दृष्टिवादमा उक्त नानाप्रकारना द्रव्यसंयोगो-चूणों बहू सरस रीते जाणे छे. अचल समकित अने अविसंवादि निर्दोष ज्ञानना धरनार छे इत्यादि रीते आचार्योनी गुणप्रशंसा करवाथी, तथा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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