________________
(१७९) सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थाना
वातिरिह तात्त्विकी ज्ञेया। अधिके विनयादियुता
हीने च दयादिगुणसारा ॥ ३-१०॥ मूलार्थ:--पोते अंगीकृत तत् तत् धर्ममर्यादामोनी प्राप्ति ते ज अत्र परमार्थभूत 'सिद्धि' नामे आशय जाणवो. श्रा प्राशय त्यारे ज थयो जाणवो के ज्यारे पोताथी अधिक गुणी जनो पर विनय श्रादि गुणयुक्त होय अने गुणहीन जनो पर अनुकंपादि गुणप्रधान होय. "सिद्धि-भेदो"
स्पष्टीकरण-प्राशयो-परिणामोना भेदो पैकी 'सिद्धि नामे चतुर्थ श्राशय छे ए वात आगल जणावी गया छीए. 'सिद्धिः'-निष्पत्तिः सिद्धि एटले निष्पत्ति तैयार थवं. प्रथम तो क्रियामां प्रवर्तवू, वचमां उद्भवता विघ्नोनो विजय करवो, एटले पछी बराबर क्रियानी सिद्धि-निष्पत्ति थाय. प्रारीते श्रा आशयनो पूर्वोक्त श्राशयो साथे अनंतर संबंध सुसंगतया बने छ, एटले आशय अधिकारमा आनी 'विघ्नजय' पछी स्थापना बराबर योग्य रीते थाय छे. 'सिद्धि बे प्रकारनी कही. एक तो परमार्थभूता तात्त्विकी अने बीजी अपरमार्थभूता अताविकी, अथवा व्यवहारिक कार्यों संबंधी अने