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________________ (१७२) छे, एवं अहीं पण स्वीकृत धर्मप्रतिज्ञाना पालन करवामा प्रवर्तनारने कदाचित् कांटां आदि समान ठंडी, गरमी, क्षुधा, पिपासा, डांस-मच्छर, याचना आदि परीसहो प्राप्त थाय, जे परीसहो भाववाथी आत्मा त्रास पामे, कंटाळी जाय, चलितपरिणामी थाय, मेघकुमार मुनिनी माफक आर्तध्यान करे. अतएव धर्मस्थानथी आत्माने आपरीसहो यत्किंचित् खसेडनार होवाथी श्रा परीसहो हीनविघ्न कंटक तुल्य कह्या. हीनता एटला माटे के आ परीसहोनो आत्मा स्हेजे विजय करी शके छे. क स्वार्थ के लालचथी पण लोको आवा दुःखोने गणता नथी. जे लोको आ विघ्नोनो विजय करी आगळ वधे एटले पोतानी धर्मविषयक प्रतिज्ञानुं रक्षण करे, विघ्नोथी कदापि न डरे, किन्तु बहु आनंद साथे तेनी सामे खडा रहे ते ज योग्य छे. " ज्वरविघ्न ____तथा तेज मनुष्य कांटा आदिथी नहीं डरतो पागल वधता मार्गमां यदि तेने बुखार आवी जाय तो ते आगल वधवामां हिम्मत हारी जाय छे. एटले आगल जवानी इच्छा छतां बुखारना कारणथी जइ शकतो नथी, छतां जवाने थोडंघां साहस करे तो पण तेना पग बराबर चालता नथी. एटले कंटकविघ्न जीतवा पूरतुं जे बल होय तेना करतां पण तीव्र अधिक बल ज्यारे होय त्यारेज ते आगल वधी शके. एवं अहीं पण धर्मप्रतिज्ञा स्वीकार्य पछी कदापि शरीर संबंधी अनेक
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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