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(१६६) पाचरण प्रकटे के जेने प्रत्यक्ष व्यवहारमा देखी शकाय एवो 'प्रवृत्ति' नामे बीजो प्राशय दर्शावे छे." ।
तत्रैव तु प्रवृत्तिः ___ शुभसारोपायसंगतात्यन्तम् ॥ अधिकृतयत्नाति
शयादौत्सुक्यविवर्जिता चैव ॥३-८॥ मूलार्थ:--स्वीकृत धर्म संबंधी प्रतिज्ञामां पवित्र अने उत्कृष्ट एवा उपायो-साधनो योजवामां अतिशयेन निपुण एवो जोरदार प्रयन्त-उद्यम करवो, तथा मानसिक उत्सुकता अथवा प्रकाले ते धर्म संबंधी फलप्राप्तिनी वांच्छा रहित एवो जे प्रयन्त करवो तेने अहीं ' प्रवृत्ति ' जाणवी. "प्रवृत्ति"
स्पष्टीकरण-शोभन-अशोभन प्रवृत्तिनुं मूल शोभन-अशोभन विचारश्रेणी सिवाय अन्य नथी. अतः प्रवृत्ति उत्पादक 'प्रणिधान' नामे पहेलो आशय जणान्या पछी श्रा आर्यामां 'प्रवृत्ति'र्नु स्वरूप दर्शावे छे. अहीं पण 'प्रवृत्ति ए विशेष्य अने अन्य तेना विशेषण पदो जाणवा. दुनियाना सर्व व्यवहारने लोको प्रवृत्ति ज कहे छे अतः अत्र क्या प्रकारनी प्रवृत्ति समजवी ? आनो खुलासो आचार्य जणावे छे. 'तत्रैव तु' पूर्वे प्रणिधान नामे आशयना अधिकारमा जे धर्मविष