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________________ ( ६३ ) के अन्य पदार्थों निर्दोष, निर्जीव स्थानमां परठववा - छोडी देवा एतुं नाम पारिस्थापनिकासमिति ५- आ पांच क्रियाओ श्रात्माने अशुद्ध व्यवहारमाथी निकाळी ( बहार लावी ) शुद्ध व्यवहारमां प्रवर्तावे छे. अतएव अशुद्धमांथी उद्धृत थइ शुद्धमां प्रवर्तकुं तद्रूप आ पांच समितियो कही. गुप्ति गुप्तिनुं स्वरूप " अप्रविचारात्मिका गुप्तिः " प्रविचार एटले निरोध तत्स्वरूप गुप्ति जाणवी. परमार्थ ए के - मां श्रात्मानी शुद्ध अथवा अशुद्ध उभय पैकी एकमां प प्रवृति न होय ते गुप्ति जाणावी. ज्यारे मन, वचन तथा काया आ योगने दुष्ट कार्योंमांथी संहरी उत्तम कार्योंमां- श्रात्महितना कार्योंमां- स्थापन कराय त्यारे ते समिति जाणवी, अने ज्यारे एत्रो योगनो दुष्ट के हितकारी कोइ पण व्यापार न होय किन्तु शान्त मौन होय त्यारे ते मनोगुप्ति १, वचनगुप्ति २, काय गुप्ति ३ जाणवी एवं आ त्रणेनो वाच्यार्थ पण मननुं गोपन, वचननुं गोपन भने कायानुं गोपन ए ज अर्थबोध करे छे. टुंकमां मध्यमबुद्धिवर्ग पासे उपदेशके श्रा समिति - गुप्तिनुं स्वरूप बराबर दर्शाव, अने कथन करवुं के साधुग्रोनो मुख्य आचार छे. हननादि त्रिकोटि " फरी साधु प्रोनुं चारित्र " त्रिकोटिपरिशुद्धं " राग, "" 4 "
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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