________________
१३१
३
हेय ज्ञेय फुनि हे कहा, उपादेय कहा होय; बोध अबोध विवेक कहा, फुनि अविवेक समोय. कौन चतुर मूरख कवण, राव रंक गुणवंत; जोगी जति कहो जीके, को जग संत महंत. शूरवीर कायर कवण, को पशु मानव देवः ब्राह्मण क्षत्रिय वैश को, कहो शुद्र कहा भेव. कहा अथिर थिर हे कहा, छिल्लर कहा अगाध; तप जप संजम हे कहा, कवण चोर को साध. अति दुर्जय जगमें कहा, अधिक कपट कहां होय; नीच उंच उत्तम कहा, कहो कृपा कर सोय. अति प्रचंड अग्नि कहा, वो दूरदम मातंग; विषवेली जगमें कहा, सायर भबळ तुरंग. किणथी डरीए सर्वदा, किणी मळीए धाय; किणकी संगत गुण वधे, किण संगत पत जाय. चपळा तिम चवळ कहा, कहा अचळ कहा सार; फुनि असार वस्तु कहा, को जग नरक दुवार. अधं बधिर जग मूक को, मात पिता रिपु मित; पंडित मूढ सुखी दुःखी, को जगमाहे अभीत. म्होटा भय जगमें कहा, कहा जरा अति घोर; प्रबळ वेदना हे कहा, कहा वक्र किशोर.