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( मूलगाथा ) संझाइ जिणं पुणरवि,
पूअइ पडिकमइ कुणइ तह विहिणा ॥ विस्समणं सम्पायं,
गिहं गओ तो कहइ धम्मं ॥ संक्षेपार्थः-संध्यासमय पुनः अनुक्रमसे जिनपूजा, प्रतिक्रमण, इसीप्रकार विधीके अनुसार मुनिराजकी सेवाभक्ति और सज्झाय करे. पश्चात् घर जाकर स्वजनोंको धर्मोपदेश करे.
विस्तारार्थः-श्रावकके लिये नित्य एकाशन करना, यह उत्सर्गमार्ग है. कहा है कि-- श्रावक उत्सर्गमार्गसे सचित्त वस्तुका त्यागी, नित्य एकाशन करनेवाला, ब्रह्मचर्यव्रत पालन करनेवाला होता है, परन्तु जो नित्य एकाशन न कर सके, उसने दिनके आठवें चौघडियमें प्रथम दो घडियोंमें अर्थात् दो घडी दिन बाकी रहने पर भोजन करना. अन्तिम दो घडी दिन रहे भोजन करनेसे रात्रि-भोजनके महादोषका प्रसंग आता है. सूर्यास्त के अनंतर रात्रिमें देरसे भोजन करनेसे महान् दोष लगता है. उसका दृष्टान्त सहित स्वरूप श्रीरत्नशेखरसूरि (प्रस्तुत ग्रन्थकारः) विरचित अर्थदीपिकामें देखो.
भोजन करनेके उपरांत पुनः सूर्योदय होवे, तब तक चौविहार अथवा दुविहार दिवसचरिम पच्चखान करना चाहिये.