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(४९०) अर्थः--स्वजनो पर कोई संकट आवे, अथवा उनके यहां कोई उत्सव होवे तो स्वयं भी सदैव वहां जाना. तथा वे निर्धन अथवा रोगातुर होजावें तो उनका उक्तसंकटमेंसे उद्धार करना. कहा है कि
आतुरे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे ।
राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥ १ ॥ उत्सव, रोग, आपदा, दुर्भिक्ष, शत्रुविग्रह, राजद्वार और स्मशानमें जो साथ रहता है वही बान्धव कहलाता है। स्वजनका उद्धार करना वास्तवमें अपनाही उद्धार है. कारण कि जैसे रहेंटके घडे क्रमशः भरते व खाली होते है वैसेही मनुष्य भी धनी व निर्धन होता है. किसीकी भी धनीअवस्था वा दरिद्रता चिरकाल तक स्थिर नहीं रहती. इसलिये कदाचित् दुर्देववश अपनी भी हीनावस्था आजावे तो पूर्वमें जिस पर अपनने उपकार किया हो वही आपत्तिसे अपना उद्धार करता है. इसलिये समय पर स्वजनोंका संकटगेसे उद्धार अवश्य करना चाहिये. ॥ २५ ॥
खाइज पिढिमंसं, न तेसि कुजा न सुक्ककलहं च ॥ तदमित्तेहिं मित्ति, न करिज्ज करिज्ज मित्तेहिं ॥२६॥
अर्थ:-पुरुषने स्वजनोंकी पीठ पर निन्दा न करना; उनके साथ हास्यआदिमें भी शुष्कवाद न करना, कारण कि, उससे