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की युक्तिसे पानी छाननेमें तथा धान्य, कंडे, शाक, खानेके पान फलआदि तपासनेमें सम्यग् प्रकारसे उपयोग न रखना. सुपारी, खारिक, वालोल, फली इत्यादि ऐसीही मुंहमें डालना, नाले अथवा धाराका जल पीना, चलते, बैठते, सोते, नहाते, कोई वस्तु डालते अथवा लेते, रांधते, कूटते, दलते, घिसते और मलमूत्र, कफ, कुल्ली, जल, तांबूल आदि डालते यथोचित यतना न रखना, धर्मकरनीमें आदर न रखना, देव, गुरु तथा साधर्मियोंके साथ द्वेष करना, देवद्रव्यादिका उपभोग करना, अधर्मियोंकी संगति करना, धार्मिकआदि श्रेष्ठपुरुषोंकी हंसी करना, कषायका उदय विशेष रखना, अतिदोष युक्त क्रय विक्रय करना, खटकर्म तथा पापमय अधिकार आदिमें प्रवृत्त होना. ये सर्व धर्मविरुद्ध कहलाते हैं. उपरोक्त मिथ्यात्वआदि बहुतसे पदोंकी व्याख्या 'अर्थदीपिका में की गई है. धर्मी लोग देशविरुद्ध, कालविरुद्ध, राजविरुद्ध अथवा लोकविरुद्ध आचरण करें तो उससे धर्मकी निंदा होती है, इसलिये वह सब धर्मविरुद्ध समझना चाहिये. उपरोक्त पांच प्रकारका विरुद्धकर्म श्रावकने कदापि न करना चाहिये।
अब उचिताचरण ( उचित कर्म ) कहते हैं. उचिताचरणके पितासम्बन्धी, मातासम्बन्धी आदि नौ प्रकार हैं. उचिताचरणसे इसलोकमें भी स्नेहकी वृद्धि, यशआदिकी प्राप्ति होती है. हितोपदेशमालाकी जिन गाथाओंमे इसका वर्णन किया गया है उनको यहां उद्धृत करते हैं:--