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ग्लानोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्च द्रः । इति विमृशन्तः सन्तः, स तप्यन्ते न विन्दादौ ॥ १ ॥ विपदां सम्पदां चपि महतामेव संभवः । कृशता पूर्णता चापि, चन्द्र एव न चोडुपु || २ ||
काटा हुआ वृक्ष पुनः नवपल्लव होता है और क्षीण हुआ चन्द्रमा भी पुनः परिपूर्ण होता है. ऐसा विचार करनेवाले सत्पुरुष आपत्तिकाल आने पर मनमें खेद नहीं करते. बडे मनुष्य ही सम्पत्ति और विपत्ति इन दोनों को भोगते हैं. देखो ! चन्द्रमा ही में क्षय व वृद्धि दृष्टि आती हे, नक्षत्रों में नहीं. हे आम्रवृक्ष ! " फाल्गुणमासने मेरी सर्वशोभा एकदम हरण कर ली " ऐसा सोचकर तू क्यों उदास होता है ? थोडे ही समय में वसन्तऋतु आने पर पूर्ववत् तेरी शोभा तुझे अवश्य मिलेगी. इस विषय पर ऐसा दृष्टान्त कहा जाता है कि:
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पाटण में श्रीमालीजातिका नागराज नामक एक कोटिध्वज श्रेष्ठी था. उसकी स्त्रीका नाम मेलादेवी था. एक समय मेलादेवीके गर्भवती होते हुए श्रेष्ठी नागराज विषूचिका (कॉलरा) रोग से मर गया. राजाने उसे निपुत्र समझ उसका सर्व धन अपने आधीन कर लिया, तब मेलादेवी अपने पियर धोलके गई. गर्भ के सुलक्षणसे मेलादेवीको अमारिपडह ( अभयदानकी डौंडी ) बजवाने का दोहला उत्पन्न हुआ. वह उसके पिताने पूर्ण किया. यथासमय पुत्रोत्पत्ति हुई, उसका नाम