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(३७७) दूसरेकी सेवा करना श्वानवृत्ति के समान है, ऐसा कहने वाले लोगोंने कदाचित् बराबर विचार नहीं किया, कारण कि, श्वान तो स्वामीकी खुशामद पूंछसे करता है, परन्तु सेवक तो सिर नमा नमा कर करता है, इसलिये सेवककी वृत्ति श्वानकी अपेक्षा भी नीच है. इतने पर भी अन्य किसी रातिसे निर्वाह न हो तो सेवा करके भी मनुष्यने अपना निर्वाह करना. कहा है कि-बडा श्रीमान् होवे उसने व्यापार करना, अल्प धनवान होवे उसने खेती करना, और जब सब उद्यम नष्ट हो जावे, तब अन्तमें सेवा करना. समझदार, उपकारका ज्ञाता तथा जिसमें ऐसे ही अन्यगुण होवें, उस स्वामीकी सेवा करना. कहा है कि
अकर्णदुर्बलः शूरः, कृतज्ञः सात्त्विको गुणी । वदान्यो गुणरागी च, प्रभुः पुण्यैरवाप्यते ॥१॥ करं व्यसनिनं लुब्धमप्रगल्भं सदामयम् । मूर्खमन्यायकारं, नाधिपत्ये नियोजयेत् ॥ २॥ .
जो कानका कच्चा न हो, तथा शूरवीर, कृतज्ञ, अपना सत्र रखनेवाला, गुणी, दाता, गुणग्राही ऐसा स्वामी सेवकको भाग्य ही से मिलता है. क्रूर, व्यसनी, लोभी, नीच, जर्णिरोगी, मूर्ख व अन्यायी ऐसे मनुष्यको कदापि अपना अधिपति न करना. जो मनुष्य अविवेकी राजा द्वारा स्वयं ऋद्धिवन्त होनेकी इच्छा करता है, वह मानो ऋद्धिप्राप्तिके लिये मट्टीके