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भक्ति तथा अन्य शुभ-कर्म करनेके हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिये || इति धर्मदत्तराजाकी कथा ||
मूल गाथा में " उचिअचितरओ " अर्थात् " उचित चिन्ता करने को तत्पर " ऐसा कहा है, इसलिये उचित चिंता वह क्या ? उसका वर्णन करते हैं । जिनमंदिरमें सफाई रखना; जिनमंदिर अथवा उसका भाग गिरता हो तो तुरंत सम्हालना: पूजाके उपकरण कम हों तो पूरे करना; भगवानकी तथा परि वारकी प्रतिमाएं निर्मल रखना, उत्कृष्ट पूजा तथा दीपादिककी उत्कृष्ट शोभा करना, चौरासी आशातनाएं टालना; अक्षत, फल, नैवेद्य आदिकी सिद्धता करना, चंदन, केशर, धूप, दीप, तैल इन वस्तुओं का संग्रह करना, चैत्यद्रव्यका नाश होता होवे तो आगे कहा जायगा उस दृष्टान्तके अनुसार उसकी रक्षा करना, दो चार अच्छे श्रावकों को साक्षी रख कर देवद्रव्यकी उगाई ( उगरानी, वसूली ) करना, आया हुआ द्रव्य उत्तम स्थानमें यत्न से रखना, देवद्रव्य के जमा खर्चका हिसाव स्वच्छ रखना, स्वयं देवद्रव्यकी वृद्धि करना तथा दूसरेसे कराना. मंदिरमें काम करनेवाले लोगोंको वेतन देना, उन लोगों के कामकी देखरेख रखना इत्यादि अनेकप्रकारकी उचित चिन्ता हैं। द्रव्यवान् श्रावकसे मंदिरके कार्य द्रव्य अथवा नौकरों द्वारा बिना प्रयास ही हो सकें ऐसे हैं, तथा अपनी अंग- मिहनत से अथवा अपने कुटुम्बके मनुष्योंसे बन सके ऐसे कार्य निर्धन मनु