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क्षेत्रकी भांति महामारी, दुर्भिक्ष इत्यादिसे रहित कर दिया. पूर्वभव में भगवान्की सहस्रदल कमलसे पूजा करी. उससे इतनी संपदा पाने पर भी वह यथाविधि त्रिकाल पूजा करने में नित्य तत्पर रहता था । " अपने ऊपर उपकार करने वालेका पोषण अवश्य करना चाहिये " ऐसा विचार कर धर्मदत्तने नये नये चैत्य में प्रतिमा स्थापन करी तथा तीर्थयात्रा, स्नात्रमहो - त्सव आदि शुभकृत्य करके अपने ऊपर उपकार करनेवाली जिन-भक्तिका बहुतही पोषण किया. उसके राज्य में अट्ठारहों वर्ण " यथा राजा तथा प्रजा इस लोकोक्तिके अनुसार जैनधर्मी होगये. जैनधर्म ही से इसभव तथा परभवमें उदय होता है. धर्मदत्तने अवसर पर पुत्रको राज्य देकर रानियों सहित दीक्षा ली और मनकी एकाग्रतासे तथा अरिहंत पर दृढभक्तिसे तीर्थंकर नामगोत्र कर्म उपार्जन किया. यहां दो लाख पूर्वका आयुष्य भोगकर वह सहस्रारदेवलोक में देवता हुआ तथा वे चारों रानियां जिनभक्तिसे गणधर कर्म संचित कर उसी देवलोकको गईं. पश्चात् उन पांचोंका जीव स्वर्ग से च्युत हुआ, धर्मदत्तका जीव महाविदेहक्षेत्र में तीर्थंकर हुआ और चारों रानियों के जीव उसके गणधर हुए पश्चात् धर्मदत्तका जीव तीर्थंकर नामगोत्र को वेद के क्रमसे गणधर सहित मुक्तिको गया. इन पांचोंका क्या ही आश्चर्यकारी संयोग है ? समझदार मनुष्योंने इस तरह जिनभक्तिका ऐश्वर्य जानकर धर्मदत्त राजाकी भांति जिन
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