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भी पत्र, फल इत्यादिकमें असंख्याता जीवकी विराधना होती है । जल लवण इत्यादि वस्तु असंख्यात जीवरूप है । पूर्वाचाका ऐसा वचन है कि, तीर्थंकरोंने एक जलबिन्दुमें जो जीव कहे हैं, वे जीव सरसोंके बराबर होजावें तो जंबूद्वीप में न समावें । हरे आमले के समान पृथ्वीकायपिंडमें जो जीव होते हैं वे कबूतर के बराबर होजायें तो जंबूद्वीप में न समावें । सर्व सचि तका त्याग करने के ऊपर अंबड परिव्राजक के सातसौ शिष्यों का दृष्टान्त है ।
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श्रावक धर्म अंगीकार कर अचित्त तथा किसीके न दिये हुए अन्न जलका भोग नहीं करने वाले वे (अंबडके शिष्य) एक समय एक बनमेंसे दूसरे बनमें फिरते ग्रीष्मऋतु में अत्यन्त तृषातुर हो गंगानदी के किनारे आये । वहां " गंगानदीका जल सचित्त तथा अदत्त ( किसीका न दिया हुआ ) होनेसे, चाहे जो हो हम नहीं ग्रहण करेंगे " ऐसे निश्वयसे अनशन कर वे सबही पांचवें ब्रह्मदेवलोक में इन्द्र समान देवता हुए । इस प्रकार सचित्त बस्तुके त्याग में यत्न रखना चाहिये । सचित्तादि १४ का नियम.
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जिसने पूर्व में चौदह नियम लिये हों, उन्होंने उन निय मोंमें प्रतिदिन संक्षेप करना और अन्य भी नये नियम यथाशक्ति ग्रहण करना | चौदह नियम इस प्रकार हैं:- १ सचित्त २ द्रव्य, ३ बिगय, ४ उपानह ( जूते ), ५ तांबूल (खाने का