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( ८२ ) मिले ?" मुनिराजने कहा-खेद न कर और दुःखी भी मत हो । तेरा मित्र मानो बुलाया ही हो उस भांति अभी यहां आवेगा.
श्रीदत्त आश्चर्य से हंस कर विचार करता ही था कि इतने में दूरसे शंख दत्तको आता हुआ देखा । उधर शंखदत्त श्रीदत्तको देख कर अत्यन्त क्रोधित हो यमकी भांति क्रूर हो उसे मारने दौडा । श्रीदत्त एक तो क्षुभित था तथा राजा आदिके पास होनेसे क्षण मात्र स्थिर रहा । इतनेमें मुनिराज बोले कि "हे शंखदत्त ! तूं क्रोधको चित्तसे निकाल दे । कारण कि क्रोध अग्निकी भांति इतना तीव्र होता है कि अपने जन्मस्थान तकको जलाकर भस्म कर देता है, क्रोध चांडाल है,अतएव इसका स्पर्श नहीं करना ही उचित है, यदि स्पर्श हो जाय तो अनेक बार गंगा स्नान करने पर भी शुद्धि नहीं होती है । जैसे भयंकर विषधर सर्प गारुडीका मंत्र सुनते ही शान्त हो जाता है, वैसे ही मुनिराजकी तत्वगर्भित-वाणी सुनकर शंखदत्त शांत हुआ । श्रीदत्तने उसे प्रीतिपूर्वक हाथ पकड कर अपने पास बैठाया । बैर दूर करनेकी यही रीति है ।
पश्चात् श्रीदत्तने केवली भगवानसे पूछा कि, "हे स्वामिन् यह समुद्री से यहां किस तरह आया ?"
केवली भगवानने कहा- जिस समय तूंने इसे समुद्रमें फैंका उस समय क्षुधा पीडित मनुष्यको फलकी भांति इसे एक पाटिया मिल गया । बिना आयुष टूटे कभी मृत्यु नहीं हो