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________________ ७० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१.गा.१५ ० भावभाषाभेदप्रतिपादनम् ० मण्णामीति ओहारिणी भासा, चिंतेमीति ओहारिणी भासा, अह मण्णामीति ओहारिणी भासा, अह चिंतेमीति ओहारिणी भासा, तह मण्णामीति ओहारिणी भासा, तह चिंतेमीति ओहारिणी भासत्ति" (प्र. भा. प. सू. १६१)।।१४।। उक्ताया एव भावभाषाया भेदानाहभावे वि होइ तिविहा, दव्वे अ सुए तहा चरित्ते य| दव्वे चउहा सच्चासच्चा मीसा अणुभया य।।१५।। भावेऽपि = भावनिक्षेपेऽपि भवति त्रिविधा = त्रिप्रकारा भाषा, द्रव्ये च श्रुते तथा चरित्रे च = द्रव्यं प्रतीत्य भावभाषा, श्रुतं प्रतीत्य, चारित्रं प्रतीत्य च सेत्यर्थः। द्रव्ये चतुर्द्धा सत्याऽसत्या मिश्राऽनुभया च। एतासां लक्षणं (ग्रन्थाग्रं-२००श्लोक) यथावसरं किमुक्तं भवति? नेदानीन्तनमननस्य पूर्वमननस्य च मदीयस्य कश्चिद्विशेषोऽस्त्येतत् भगवन्निति, तथा यथा पूर्व भगवन्! चिन्तितवान् इदानीमप्यहं तथा चिन्तयामि इति- एवं . यदुत अवधारिणी भाषेति। अस्त्येतदिति? एवं गौतमेनाऽभिप्रायनिवेदने प्रश्ने च कृते भगवानाह- "हंता गोयमा! मन्नामी इति ओहारिणी भासा" इति। 'हन्तेति सम्प्रेषणप्रत्यवधारण-विवादेष' इह प्रत्यवधारणे। मन्नामी इत्यादीनि क्रियापदानि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च युष्मदर्थेऽपि प्रयुज्यन्ते। ततोऽयमर्थः । हन्त गौतम! मन्यसे त्वं यदुत अवधारिणी भाषेति, जानाम्यहं केवलज्ञानेनेदमित्यभिप्रायः। तथा चिन्तयसि त्वमित्येवं यदुतावधारिणी भाषेति, इदमप्यहं वेदिम् केवलित्वात्। "अह मन्नामी इति ओहारिणी भासा" इति। अथेत्यानन्तर्ये मत्सम्मतत्वात् ऊर्ध्वं निःशकं मन्यस्व इति- एवं यदुतावधारिणी भाषेति, अथ इति ऊर्ध्वं निःशकं चिन्तय इति एवं यदुतावधारिणी भाषेति, अतीवेदं साध्वनवद्यमित्यभिप्रायः। तथा तथा अविकलं परिपूर्णं मन्यस्व इति एवं यदुतावधारिणी भाषेति यथा पूर्व मतवान् । किमुक्तं भवति? यथा त्वया पूर्वं मनं कृतमिदानीमपि मत्सम्मतत्वात्सर्वं तथैव मन्यस्व मा मनागपि शङ्कां कार्षीरिति। तथा तथा अविकलं परिपूर्ण चिन्तयेति- एवं यदुताऽवधारिणी भाषेति यथा पूर्वं चिन्तितवान्, मा मनागपि शङ्किष्ठा इति।।१४।। ___ अपिशब्दो नोआगमतो द्रव्यनिक्षेप-तव्यतिरिक्तद्रव्यनिक्षेपयोः समुच्चयार्थः । 'द्रव्ये' इत्यत्र विषयत्वं सप्तम्यर्थः । तथा च द्रव्यविषयिणी भावभाषेत्यर्थः । 'एवं श्रुते चारित्रे' इत्यत्राऽपि बोध्यम् । शेषमतिरोहितार्थम् ।।१५।। सोचूँ कि भाषा अवधारिणी है? भगवंत! आपको प्रश्न करने के, पूर्व में मैं जैसे मनन और चिंतन करता था वैसे अभी भी मैं मनन और चिंतन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। क्या यह मनन और चिंतन निर्दोष है?" गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीरस्वामी कहते हैं कि-" हे गौतम! तू मानता है और सोचता है कि "भाषा अवधारिणी है" यह मैं केवलज्ञान से जानता हूँ। अब तुम निश्चिंत होकर बिना कुछ हिचकिचाहट के मानो और सोचो कि - "भाषा अर्थनिश्चायक है"। पूर्व में तुम जैसे मनन और चिंतन करते थे अब भी वैसे ही मनन और चिंतन करो कि - 'भाषा अवधारिणी है'। यह मनन और चिंतन अत्यंत निर्दोष है, क्योंकि मुझे यह संमत है।" प्रज्ञापना के उपर्युक्त वचन से भी यह सिद्ध होता है कि - शब्द अर्थ का निश्चय कराता है ही।।१४।। १४वीं गाथा में जिस भावभाषा के स्वरूप का निरूपण किया है उस भाषा के ही भेदों को अब १५वीं गाथा से ग्रंथकार बता रहे हैं। भावभाषा के तीन भेद गाथार्थ :- भावविषयक भाषा के तीन प्रकार भेद हैं - द्रव्यभावभाषा, श्रुतभावभाषा और चारित्रभावभाषा | द्रव्यभावभाषा के चार प्रकार है - सत्य, असत्य, मिश्र और अनुभय।१५। विवरणार्थ :- भावनिक्षेप में भी भाषा के तीन प्रकार हैं। द्रव्यविषयक भावभाषा अर्थात् विषयविधया द्रव्य का आलंबन कर के बोली जानेवाली भावभाषा, श्रुतविषयक भावभाषा और चरित्रविषयक भावभाषा। द्रव्यविषयक भावभाषा के चार भेद हैं-सत्य भावभाषा, असत्य भावभाषा, मिश्र भावभाषा और अनुभय यानी न सत्य और न मृषा ऐसी भावभाषा| इस भावभाषा के भेदों का लक्षण उनके निरूपण का जब आगे अवसर आयेगा तब बताया जायेगा।।१५।। १ भावेऽपि भवति त्रिविधा द्रव्ये च श्रुते तथा चारित्रे च। द्रव्ये चतुर्द्धा सत्याऽसत्या मीश्राऽनुभया च ।।१५।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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