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जन्मस्थान, दीक्षा, काशी में अध्ययन न्यायविशारद व न्यायाचार्य बिरुद की प्राप्ति, सरस्वती साधना एवं वरदान, योग एवं अध्यात्म का विशदीकरण तथा अनुपम अगाध साहित्यरचना आदि की जानकारी हेतु "यशोदोहन' श्री 'सुजसवेली भास' "श्रुतांजलि' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करें इस 'अल्प वक्तव्यता' में उपाध्यायजी का जीवन वृत्तान्त एवं अगाध समुद्र जैसी उनकी साहित्य सेवा का परिचय देना असम्भव है।
श्रीसुजसवेलीभासकार की गुरुभक्तिस्वरूप गाथा को देकर ग्रन्थकार संबंधी वक्तव्यता को पूर्ण कर रहा हूँ ।
संवेगी सिरसेहरो, गुरु ग्यान- रयणनो दरियो रे,
परमततिमिर उछेदिवा, ए तो बालारुण दिनकरियो रे. श्री. ।। ढाल ४ कड़ी ७ ।।
(इसमें उपाध्यायजी के तीन विशेषण दिए हैं संवेगिशिरःशेखरः ज्ञानरत्नसागरः परमततिमिरदिनकरः)
(२. ग्रन्थ)
ग्रन्थ के नाम से ही पता चलता है कि यह ग्रन्थ भाषा की उन गुत्थियों को सुलझाता होगा जिनसे अधिकांश जनमानस अपरिचित है। अद्यतन काल में भाषा का ज्ञान साधु भगवंत एवं जनसाधारण के लिए नितान्त आवश्यक है । कोई भी भाषा हो परन्तु वह भाषा सभी प्रकार से विशुद्ध होनी चाहिए, क्योंकि भाषा विशुद्धि परंपरा से मोक्ष का कारण है। यह इस ग्रन्थ का हार्द है। यह बात ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की अवतरणिका में ही कही है। "
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वाग्गुप्ति अष्टप्रवचनमाता का अंग है। भाषा विशुद्धि का अनभिज्ञ अगर संज्ञादि परिहार से मौन रखे तो भी उसे वाग्गुप्ति का फल प्राप्त नहीं होता है अतः भाषा विशुद्धिनितान्त आवश्यक है। इसलिए सावद्य, निरवद्य वाच्य, अवाच्य, औत्सर्गिक, आपवादिक, सत्य, असत्य आदि भाषा की विशिष्ट जानकारी हेतु, अष्टप्रवचनमाता के आराधकों के लिए यह ग्रन्थ 'गागर में सागर' है।
ऐसे तो देखे तो यह ग्रन्थरत्न विद्वद्भोग्य है उपाध्यायजी की रहस्यपदांकित कृति में रहस्य भरा हुआ ही होता है। फिर भी सभी के उपकार हेतु टीकाकार ने जो हिन्दी में अनुवाद किया है वह अतीव अनुमोदनीय है, जिसको पा कर सभी वाचक इस अमूल्य ग्रन्थपुष्प के सुवास से प्रमुदित बन सकेंगे।
प्राचीन ग्रन्थों को बिलो कर उसमें से घृत निकाल कर परिवेषण करने की अपूर्वशक्ति उपाध्यायजी को वरी हुई थी । अतः उन्होंने इस प्रकार अनेकानेक ग्रन्थों का सृजन किया था प्रस्तुत ग्रन्थ उनमें से एक है। उपाध्यायजी ने तत्त्वरत्नाकर प्रज्ञापनासूत्र, चारित्र की नीवस्वरूप दशवैकालिकसूत्र, जिनशासन का अद्वितीय ग्रन्थरत्न विशेषावश्यक भाष्य आदि अगाध ग्रन्थों का आलोडन कर के इस अमूल्य ग्रन्थ की भेंट दी है। सोने में सुगन्ध स्वरूप इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी है। जो ग्रन्थ के हार्द को प्रस्फुरित करती है।
आगम आदि साहित्य में ऐसी कई बाते हैं जो बाह्यदृष्टि से विरोधग्रस्त सी लगती हैं। उपाध्यायजी की विशेषता यह है कि उन बातों को प्रकट कर के अपनी तीव्रसूक्ष्मग्राही मेधा द्वारा उनके अन्तस्तल तक पहुंच कर गंभीर एवं दुर्बोध ऐसे स्याद्वाद, नय आदि के द्वारा उसका सही अर्थघटन करते हैं। देखिए
सच्चतब्भावे च्चिय चउन्हे आराहगत्तं जं ।। १९ ।।
इस गाथा की स्वोपज्ञटीका में बताया है कि चारों भाषाओं (सत्य, मृषा, सत्यमृषा, असत्यमृषा) का सत्य में अंतर्भाव होगा तभी ७. इस ग्रन्थ के प्रणेता प्रो. हीरालाल कापडिया है। वि. सं. २०२२ में 'यशोभारती' जैन प्रकाशन समिति के पुष्प २ के रूप में प्रकाशित हुआ है ।
८. यह ग्रन्थ वि. सं. २००९ में 'श्री यशोविजयसारस्वत सत्र' कि पुस्तिका नं. १ के रूप में प्रकाशित हुआ है ।
९. यह 'शान्तिसौरभ' का जनवरी-फरवरी सन् १९८७ का अंक है। प्रकाशिका श्रीशीतलजिनप्रतिष्ठासमिति पाड़ीव (राजस्थान ) १०. इह खलु निःश्रेयसार्थिनां भाषाविशुद्धिरवश्यमादेया वाक्तमितिगुप्त्योश्च तदधीनत्वात् तयोश्च चारित्राङ्गत्वात् तस्य च परमनिःश्रेयसहेतुत्वात् ।
११. इच्चेयाइं भंते! चत्तारि भासज्जाइं भासमाणे किं आराहए विराहए ? गोयमा ! इच्चेयाइं चत्तारि भासज्जाताइं आयुत्तं भासमाणे आराहए, णो विराहएति । (प्रज्ञापना. भाषापद सू. १७४ )
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