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प्रकाशकीय निवेदन बरस रही है आज हमारे हृदय आँगन में आनन्द की बर्षा, जिसे शब्दों से हम कैसे व्यक्त करें!!!
जिनशासनरूपी महानगर का महामहोपाध्यायविरचित भाषारहस्यप्रकरणस्वरूप महा उद्यान आज गुरुकृपा से अंकुरित, अभिनव प्रतिभा से नवपल्लवित एवं नवीन युक्तियों से पुष्पित तथा नूतन निष्कर्षों से फलित ऐसे मोक्षरत्नात्मक अर्वाचीन सहकारवृक्ष से, जिसमें स्फुट-प्राञ्जल रहस्यार्थनिरूपण की खुश्बु से प्लावित एवं स्वदर्शनमण्डनपरदर्शनखण्डनात्मक खट्टे-मीठे आह्लादक रस से व्याप्त आम्रफल जिज्ञासुपथिकवृन्द की तृप्ति के लिए नवीन-प्राचीनद्विविधन्यायशैलीरूप शीतल पवन की लहर से झूम रहे हैं, सुशोभित हो रहा है। एवं, नव्य कुसुमामोदारूप गुलाब के पौधे से, जिसमें रोचक-मनमोहक प्रवाही शैलीरूप सौरभ से गर्भित कोमल फूल खिल कर पाठकभ्रमरवृन्द को विज्ञानमकरन्द का पान कराने के लिए नृत्यगान कर रहे हैं, अलंकृत हो रहा है। ___'महोपाध्याय न्यायविशारद न्यायाचार्य यशोविजयजी से रचित भाषारहस्यप्रकरण के स्वोपज्ञविवरण पर मुनिश्री यशोविजयजी ने संस्कृतभाषानिवबद्ध मोक्षरत्ना टीका एवं हिन्दी भाषानिबद्ध कुसुमामोदा टीका की रचना की है, जो षड्दर्शननिष्णातमति आचार्यभगवंत जगच्चन्दसूरीजी म. सा., नैयायिकप्रवर मुनिवरश्री पुण्यरत्नविजयजी म. सा. एवं यशोरत्नविजयजी म. सा. के द्वारा संशोधित हो गई हैं और मुद्रणयोग्य अवस्था में सज्ज की गई हैं' - यह हमें मालुम होते ही प. पू. गीतार्थाग्रणी सिद्धान्तदिवाकर आचार्यदेव श्रीमद् जयघोषसूरिजी म. सा. के पास जाकर इस बहुमूल्य ग्रन्थरत्न के प्रकाशन का लाभ हमारी संस्था को देने के लिये विज्ञप्ति करने पर पूज्य आचार्य भगवंत ने हमें सहर्ष स्वीकृति देने की महती कृपा की है । मुनिश्री ने दोनों टीका में कहीं भी कसर नहीं रखी है और मूल ग्रन्थ के हार्द को स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त परिश्रम किया है तथा संपादन आदि में भी काफी उद्यम किया है एतदर्थ वे बडे धन्यवादाह हैं। __. 'बहुरत्ना वसुन्धरा' उक्ति के अनुसार साम्प्रतकाल में भी जिनशासन में तीव्रमेधासम्पन्न अनेक दिग्गज विद्वान् मुनिराज विद्यमान हैं। उन सभी को प्रेरणा देनेवाला मुनिश्री का यह स्तुत्य प्रयास अन्यकर्तृक भावी अनेक ग्रन्थों के सर्जन में अवश्य निमित्त बनेगा - यह हमारी धारणा है।
वि. सं. १९९१ की साल में मोक्षरत्ना और कुसुमामोदा दोनों व्याख्याओं से सुशोभित प्रस्तुत भाषारहस्य ग्रन्थ का प्रकाशन करने का बड़ा सौभाग्य एवं सद्भाग्य हमें प्राप्त हुआ था। इस बात का हमें आनन्द है। ग्रन्थ प्रकाशन के बाद अध्येतावर्ग में इस ग्रन्थ का काफी प्रचार एवं प्रसार हुआ - इस बात का हमें अधिक आनन्द है। नूतन अध्येतावर्ग को इस ग्रन्थ की आवश्यकता महसूस हो रही है। अतएव इस ग्रन्थ की दूसरी आवृत्ति हमारी संस्था की ओर से प्रकाशित हो रही है - इस बात का हमें अत्यन्त हर्ष है।
परमश्रद्धेय वर्धमानतपोनिधि न्यायविशारद सकलसंघहितचिन्तक गच्छाधिपति स्व. गुरुदेवश्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजाकी दिव्य कृपा से एवं सुगृहीतनामधेय गीतार्थचूडामणि सिद्धान्तदिवाकर गच्छाधिपति आचार्यदेवश्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा के शुभाशिष से हमारी संस्था को ऐसे बहुमूल्य शास्त्रीय प्रकाशनों का लाभ मिलता रहे यही हमारी आंतरिक तमन्ना है।
इस ग्रन्थरत्न की द्वितीय आवृत्ति के प्रकाशन में भुवनभानुसूरिस्मृतिमंदिर - पंकज सोसायटी जैन संघ - अमदावाद की ओर से ज्ञानद्रव्य का संपूर्ण आर्थिक सहयोग उदारभाव से संप्राप्त हुआ है। एतदर्थ पंकज सोसायटी जैन संघ के ट्रस्टीगण अवश्य हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
आशा रखते हैं - इस ग्रन्थरत्न का अवगाहन कर ग्रन्थ के हार्द तक पहुँचकर, अध्येता मुमुक्षुवर्ग मक्खन सी मुलायम, गुलाब सी खुश्बु फैलानेवाली, सक्कर जो ज्यादा मधुर एवं विवेकपूर्ण और हित-मित-पथ्य-सत्य शास्त्रीय तथ्यों से भरी हुई वाणी का प्रयोग करके, दूसरों के दिल के घाव की मलमपट्टी करके, कर्ममुक्त होकर शीघ्र मोक्षसुख प्राप्त करेंगे।
लि. दिव्यदर्शन ट्रस्ट के ट्रस्टी
कुमारपाल वि. शाह एवं भरतभाई चतुरदास शाह आदि