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________________ ३०४ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ५. गा. ९१ O पक्वादिपदार्थदर्शनम् O फलेषु औषधीषु वा वचनकुशलः = वाग्विधिनिपुण पक्वादिवचो न वदेत् । तथाहि पक्वानि=पाकप्राप्तानि एतानि फलानि तथा पाकखाद्यानि=बद्धास्थीनीति गर्त्ताप्रक्षेपकोद्रव-पलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति यावत् । तथा वेलोचितानि = पाकातिशयतो वा ग्रहणकालोचितानि अतः परं कालं न विषहन्त इति यावत् । तथा टालानि अबद्धास्थीनि कोमलानीति यावत् । तथा द्वैधिकानि = पेशीसम्पादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानीति । तथा पक्वा एताः शाल्याद्या औषध्यः तथा नीलाः छविमत्यो वा लवनयोग्या वा भर्जनयोग्या वा पृथुकखाद्या वा इति । गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज्ज पन्नवं । । जाइमंता इमे रुक्खा, दीहवट्टा महालया। पयायसाला विडिमा, वए दरिसणित्ति अ ।। (द. वै. ७/३०/३१) वृक्षविषयवाग्विधिमुक्त्वा साम्प्रतं फलादिविषयकवचनविधिं प्रदर्शयति फलेष्विति । विपाच्येति । तदुक्तं प्राचीनतमचूणा-पलालातिपक्कं वा कातूण खातियव्वाणि किंचिदपक्काणि जधा कयलादीणि' (द. वै. अ. चू. पृ. १७२) भक्षणयोग्यानीति गलबिलाधस्संयोगानुकूलव्यापारोचितानि । वेलोचितानि। तदुक्तं चूर्णी 'वेलोइयाणि नाम वेला-कालो तं जा णिति वेला तेसिं उच्चिणिऊणंति, अतिपक्काण एयाणि पडंति जइ न उच्चिणिज्जंति (द. वै. जि. चू. पृ. २५६) विषहन्त इति । असो- ड्-सिव् - सहस्सटाम् (सि. श. २/३/४८) इति सिद्धहेमसूत्रेण षत्वप्राप्तिः । टालानि । प्राचीनतमचूर्णौतु - 'टालाणि जहा कविट्ठादीणि अबद्धट्ठिगाणि विभातसंधीणि सक्कंति पेसीकाउं ताणि पुण टालियंबायिषु पजुज्जंति' (द. वै. अ. चू. पृ. १७३ ) इत्युक्तम् । श्रीशीलाङ्काचार्येण- 'टालानि=अनवबद्धास्थीनि कोमलास्थीनि (आचा. २/४/२-१३८ वृ.) इत्युक्तम् । द्वैधिकानीति। प्राचीनतमचूर्णौ तु 'णवीकरणीयाणि अंबाणि अतो वेहिमं बेति' (द. वै. अ. चू. पृ. १७३) इत्युक्तम् । चूर्णौ च 'बेधा कीरंति तं वेहिमं अबद्धद्विगाणं अंबाणं पेसियाओ किरंति' (द. वै. जि . चू. पृ. २५६ ) इत्युक्तम् । तदुक्तं दशवैकालिके 'तहा फलाई पक्काई पाकखज्जाइं नो वए । वेलोइयाइं टालाई वेहिमाइ त्ति नो वए ।। (द. वै. ७/३२) वनस्पतिविशेषरूपा औषधीः प्रदर्शयति - तथेति । नीला इति अपक्वाः, न पाकप्राप्ता इत्यर्थः । केचित्तु श्रीहरिभद्रसूरिमते इदं च छविविशेषणमित्याहुः, तदसत्, तन्मतेऽपि अस्यौषधीविशेषत्वात् । तदुक्तं दशवैकालिकवृत्तौ 'तथा T * फलविषयक वाग्विधि * 1 विवरणाथ :- वचनविधि में निष्णात व्यक्ति को फल के सम्बन्ध में पक्वादि शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। आदि शब्द से पाकखाद्य आदि का ग्रहण अभिप्रेत है । पक्व का अर्थ है पाकप्राप्त । 'ये फल पक्व हैं' यह प्रयोग निषिद्ध है । पाकखाद्य का अर्थ है पका कर खाने योग्य । 'ये फल पाकखाद्य हैं' इसका अर्थ यह है कि इन फलों में गुठलियां पड गई हैं। इसी सबब ये खड्डे में डाल कर कोद्रव-घाँस-भूसे आदि से पका कर खाने योग्य हैं। 'ये फल वेलोचित हैं' इसका अर्थ यह है कि ये फल अति पक्व होने के सबब शाखा पर नहीं रह सकते हैं अर्थात् तत्काल तोड़ने योग्य हैं। टाल शब्द का प्रयोग उन फलों में होता है जिनमें गूठली नहीं पडी है। ये फल दो टुकडे करने योग्य हैं अर्थात् फाक करने योग्य हैं। यहाँ चूर्णिकार का अभिप्राय यह है कि - जिन आमों के फल में गुठली न पडी हो उनकी फांके की जाती हैं, वे आम वेध्य कहे जाते हैं। फलरूप विषय में इन वचनों का प्रयोग करना निषिद्ध है। * औषधीविषयक वचनविधि * तथा पक्वा एताः इति । शास्त्र के अभिप्राय से शालि आदि औषधीशब्द से वाच्य हैं। चावल, गेहूँ, बाजरी आदि को देख कर (१) ये पक्व हैं (२) ये नील हैं अर्थात् ये अपक्व या हरी हैं, (३) ये फलियाँ से मुक्त हैं, (४) ये काटने योग्य हैं, (५) ये भूनने योग्य हैं, (६) ये पृथुकखाद्य हैं, अर्थात चिवडा बना कर खाने योग्य हैं। लोग अर्धपक्व चावल, गेहूँ आदि का चिवडा बना कर खाते हैं,
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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